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Thursday, June 23, 2022

न्याय

       “हे माधव!  हे मुरारी! हे नंदलाल!  मेरे बच्चे को, मेरे इकलौते बच्चे को बचा लिजिये!, मेरे राजदुलारे को बचा लीजिये,  म..मैं...मैं उसके बिन एक पल भी नही जी सकती,  मुझे उठा लीजिये पर मेरे बच्चे को बचा लीजिये!”


    'मान्यता देवी' त्रिभंगी लाल की प्रतिमा के आगे हाथ जोड़कर  फफक-फफक कर  रोये जा रही थी।


    “क्यों?  क्यों बचा लें?”


    मान्यता देवी चौंक कर इधर उधर देखने लगी। आस-पास कोई न था सिवा केशव की प्रतिमा के।


    “प्रभु! मेरे प्रभु! ये अ..आप….”


    मान्यता देवी हर्ष और आश्चर्य मिश्रित स्वर में एकटक प्रतिमा की ही तरफ देखकर बोल पड़ी।


    “हाँ! यह मैं ही हूं, क्यों बचा लूं बोलो?”


    “आप मेरे प्रभु हैं, मेरे स्वामी, मैं आपकी शरण मे हूँ प्रभु ! मेरे बच्चे की रक्षा कीजिये….”


    “मैं सबका प्रभु हूँ, पूरे चराचर जगत का प्रभु हूँ, सभी जीवधारी मेरे ही बच्चे हैं, सिर्फ तुम ही नही! तुम्हारे बच्चे की ही रक्षा क्यों?”


    “प्रभु! मैं एक माँ हूँ और मैं बचपन से ही आपकी भक्त हूँ प्रभु! रतन मेरा इकलौता बेटा है प्रभु! मैं उसके बिना नही रह सकती! नही रह सकती! प्रभु! उसे बचा लीजिये। उसके बदले मुझे मार दीजिये पर उसे बचा लीजिये प्रभु!”


    मान्यता देवी लगभग फूट-फूट कर रोने लगी थी।


    “जिस मेमने का मीट तुम लोग उस दिन बड़े चाव से खा रहे थे, वो भी तो किसी का बेटा था।


    वो भी इसी तरह मुझसे विनय कर रही थी, प्रार्थना कर रही थी, क्या वो माँ नही थी?  क्या तुम्हें उसके दर्द का एहसास नही हुआ? जिस मुर्गी का अंडा तुम लोग छीन कर खा जाते हो, क्या उसको दुख नही होता? क्या वो माँ नही है?


    फ़...फ़...फिर तुम्हे ही क्यों?”  आवाज में लड़खड़ाहट उत्पन्न हो चुकी थी।


    “त...त..तुम्हारा ब..बेटा भी तो मना किया करता है..प...पर तुम लोग नही मानते!” पुनः प्रतिमा से ही लड़खड़ाती हुई आवाज आई।


    मान्यता रोये जा रही थी, उसे अपने पर पछतावा हो रहा था।


    “म...माँ… माँ…. ”  सहसा प्रतिमा के पीछे से घुटी सी आवाज आई।


    भद्द से कुछ गिरने की भी आवाज आई।


    मान्यतादेवी दौड़कर प्रतिमा के पीछे गयी और चौंक पड़ी।


    वो रतन ही था जो कई दिनों से कोरोना से पीड़ित था।


    मान्यता देवी उसे फ़टी-फ़टी आंखों से देख रही थी।


    न्याय हो चुका था।


    लेखक - सूरज शुक्ला 

Wednesday, June 22, 2022

गधों का महत्व

    अरुण को अपने 12 वर्षीय पुत्र से ऐसे जवाब की कतई उम्मीद नही थी।


    हतप्रभ रह गये थे वो।


    सोच में पड़ गये की अभी से ये हाल है तो आगे क्या होगा? वे उसको एक अच्छी सी सीख देना चाहते थे।


    पर कैसे....??


    एकाएक  उनके मन मे एक विचार आया! उनके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गयी, उन्होने  चन्दन से कहा।


    "बेटा आज हम पास के गांव मे घूमने चलेंगे, फटाफट रेडी हो जाओ!"


    चन्दन भी खुशी-खुशी तैयार हो गया। कुछ ही देर मे उनकी बाइक शहर  की पक्की सड़क  से उतर कर गाँव के कच्चे रास्ते पर हिचकोले खा रही थी।


    गांव के पास पहुच कर अरुण ने बाइक खडी की और पैदल ही चल पड़े।


    पास के ही एक खेत में एक किसान फसल की बुवाई कर रहा था, वह मिट्टी और पसीने से लथपथ हो रहा था।


    अरुण ने मुस्कुराते हुए चन्दन को सम्बोधित कर के  कहा " वो देखो सबसे बडा गधा!"


    चन्दन चौंक गया! वह समझ नही पाया कि पापा क्या बोल रहे हैं। इससे पहले की वह कुछ पूछता उन्होने आगे बढने का इशारा किया।


    कुछ दूर जाने पर फिर अरुण ने एक तरफ इशारा करते हुए कहा "ये रहा आपका दूसरा गधा!" चन्दन ने देखा एक ग्वाला अपनी  गायो को चारा पानी डाल रहा था।


    "पर पापा..."  चन्दन कुछ कहना ही चाहता था पर अरुण ने आगे बढने का इशारा किया।


    आगे एक बढई का घर था। बढई को देखते ही अरुण ने  फिर मुस्कुराते हुए कहा- "ये रहा आपका तीसरा गधा!"


    चन्दन ने देखा वो बढई एक कुर्सी बनाने मे व्यस्त था।


    चन्दन को समझ नही आ रहा था कि उसके पापा इन लोगे को गधा क्यूं बोल रहे है?


    वह कुछ पूछना ही चाहता था कि अरुण ने मुस्कुराते हुए  वापस चलने का इशारा किया।


    घर आकर एक बार फिर चन्दन विस्मित रह गया, जब उसके पापा ने  अस्त-व्यस्त कपड़ो  तथा पसीने से  लथपथ घर की सफाई कर रही  उसकी मम्मी की तरफ इशारा करते हुए कहा "ये रहा आपका चौथा गधा जो आपके घर मे ही मौजूद है।"


    चन्दन के चेहरे पर झुंझलाहट और रोष साफ दिख रहा था उसने अचकचाते हुए पूछा-


    "पापा आप सबको गधा क्यू बोले जा रहे है? वो किसान अंकल हमको अनाज देते है और वो दूधवाले अंकल सुबह-सुबह ही दूध दे जाते है। रामू चाचा के यहां  से तो मेरी टेबल बन कर आयी थी भला ये लोग गधे कैसे???


    और सबसे बड़ी बात! मम्मी इतना काम करती हैं, अगर वो न रहे घर मे तो पूरा घर गंदा हो जाएगा। खाना कौन देगा हमे? आप उनको गधा बोल रहे है? भला ऐसा क्या किया इन्होने?


    "अच्छा चलो! अब इन लोगो को समझाते है कि मेहनत तो गधे करते हैं।"


    अरुण ने चन्दन के सवाल को एकबार फिर  नजरअंदाज करते हुए कहा।


    सहसा चंदन को कल की बाते एक एक कर याद आने लगीं। जब एक बगल के अंकल ने उससे कहा था "बेटा मेहनत किया करो मेहनत का फल मीठा होता है।"


    "मेहनत तो गधे करते है।"  चम्दन ने तपाक से कहा था।


    "सॉरी पापा!"


    सिर झुकाए हुए इतना ही कह पाया था वह।


    लेखक - सूरज शुक्ला

Friday, June 10, 2022

पुस्तक समीक्षा "लिक्टर"

     किसी किताब पर ये मेरी पहली समीक्षा है, जिसे मैं समीक्षा की तरह लिखने की पूरी कोशिश करूंगी।


    तो उसके पहले मैं बता दूं कि अब तक मैंने बहुत ज्यादा किताबें नहीं पढ़ी हैं, जिसको आप न के बराबर भी कह सकते हैं।


    लेकिन मैंने दो-चार जितनी भी किताबें पढ़ीं हैं, उनमें से जिसकी समीक्षा देने का मन मैंने आज बनाया है, वो वाकई में काबिल-ए-तारीफ  है और मेरी पसंदीदा भी बन चुकी है।


    अब नाम बताने में देर कैसी, तो उस पुस्तक का नाम है 'लिक्टर' यह एक ईरानी लघु-उपन्यास है जिसके लेखक 'मोहम्मद आबेदी जी' हैं व इस लघु-उपन्यास का हिंदी अनुवाद 'आलोक कुमार जी' ने किया है।


    जो बेहद शानदार और जानदार है। ये मेरी या हम सबकी खुशनसीबी है कि इतने बढ़िया लघु-उपन्यास का हमारी भाषा हिंदी में अनुवाद हुआ और हमें उसे पढ़ने का मौका मिला।


    उपन्यास के शुरुआत में ही लेखक ने अपनी कल्पनाओं को शब्दों में पिरोने की अपनी कला को इस तरह पेश किया है कि जो भी एक बार इसे पढ़ने बैठे, बस बैठा ही रह जाये। शुरुआत से ही अपने शब्द जाल में पाठक को बांधने का  आबेदी साहब का ये तरीका बेहद ही खूबसूरत है।


    इस उपन्यास के सार पर जाए उसके पहले इसकी भाषा-शैली पर जरा गौर फरमा लेते हैं। उपन्यास की भाषा शैली इतनी सरल है कि बीच बीच में शब्दों को समझने के लिए या किसी वाक्य को दिमाग में फिट बैठाने के लिए पाठक को बार बार ठहरना न पड़े।


    साथ ही इस उपन्यास के वे छः महत्वपूर्ण किरदार जिन्हें ऐसे गढ़ा गया है जैसे वो दुनिया के इस रंगमंच के असल किरदार हों।


    उनका डरना, उनका खाना, सोना, उठना, बैठना, बाते करना, और फिर मरने के लिए दिल पर पत्थर  सा रख लेना।


    ये सब कुछ ही है जो शुरू से अंत तक पाठक को अपने साथ बनाये रखता है।


    इस उपन्यास में किरदारों को इतनी बारीकी से बुना गया गया है कि हर इक की भावना हमें अपनी सी दिखाई पड़ती है।


    यह उपन्यास एक ऐसी परिस्थिति की कहानी है जो न आज तक मैंने देखी है और न ही आपने।


    इस उपन्यास का सार आपको किसी उत्तर के रूप में नहीं बल्कि प्रश्न के रूप में मिलेगा।


    सोचिए जरा, कभी ऐसा हो जाये कि इस पूरी दुनिया में सिर्फ चंद लोगो या पांच - छः लोगो के सिवा और कोई इंसान न बचे? क्या तब भी आपके अंदर जीने की ललक होगी?


    आप अपने परिवार को, दोस्तो को और उन सभी चीजों को जो आपके लिए जीने की वजह थीं, वो सब खो जायें तो क्या आप जी पायेंगे??


    शायद इस वक़्त आपका जवाब होगा; असम्भव! ऐसा कैसे हो सकता है, जब हमारे अपने, हमारी चहेती चीजें या जो हमारे जीने का आधार थे, वे ही नहीं तो इस जीवन में फिर बचा ही क्या होगा?


    लेकिन परिस्थिति! जब तक हमें सिर्फ कल्पना करना हो, तब तक हमारे सारे सिद्धांत हमारे साथ होतें हैं, लेकिन जब हम उस परिस्थिति का साक्षत्कार करते हैं तो शायद हमारे मूल्य भी हमें याद नहीं रहते, बस बचता है तो डर! मर जाने का या किसी खौफ नाक हादसे का।


    हां पर शायद ऐसा हो सकता है कि जब आपको कोई आसान मौत मरना पड़े तो आप या मैं मरने से न घबराए, लेकिन सोचिए आपको अपने जीवन की बलि देनीं है, वो भी एक खौफनाक ढंग से..तब भी आप चाहेंगे कि मैं मर जाऊँ?? अपने परिवार के बिना, साथियों के बिना, इस जीवन की खूबसूरत चीजों के बिना जीवन कैसा? क्या तब भी आप यही सोचेंगे???


    शायद ही कोई ऐसा जांबाज़ हो!


    ये कहानी आपसे उत्तर मांगती है, कि आपका खौफ क्या आपके मूल्यों से ज्यादा प्रभावशाली है?


    आपके सामने कोई भूखा है और आपने हमेशा हर भूखे को भोजन दिया लेकिन एक वक्त ऐसा आये जब आपके पास अपर्याप्त भोजन हो जो सिर्फ आपकी भूख मिटाने के लिए ही काफी है और आप उसे खाने जा रहे हों पर तभी कोई भूखा आ जाये तो क्या तब भी आपके सिद्धांत आपके साथ होंगे?


    क्या आप अपनी भूख को नजरअंदाज करते हुए उसे अपना भोजन दे देंगे? या फिर आपको पता हो कि इस भोजन के बाद आपको भोजन मिलने वाला नहीं है तो क्या आप अपने भोजन को आपके सामने खड़े भूखे से बांट सकतें हैं??


    ये कहानी एक ऐसी परीक्षा है जो असल में एक मनुष्य की कमजोरी को नँगा करके रख देती है।


    चलिये इसे भूल जाते हैं और बात करते हैं कहानी के अंत की, कहानी का अंत अगर मैंने आपको बता दिया तो लेखक की मेहनत का तिरस्कार होगा।


    लेकिन कुछ न कुछ कहना तो बनता ही है, इसका अंत इतना रोचक है कि शायद आपकी आंखें पसीज जाएं! और आप जान जाएं कि स्वार्थ का परिणाम क्या होता है?


    आपके पास जब तक भोजन होता है, पानी होता है, आपके दोस्त होते हैं, माता-पिता होते हैं या कोई भी ऐसी चीज जो आपके लिए असल में जरुरीं है पर तब तक आप उसका मूल्य नहीं समझ पाते, और जब वो सब आपके हाथों से फिसल जाता है तो आप केवल पछतावे के कुछ नहीं कर सकते कुछ भी नहीं!


    एक बात और है जो रह गई, ये कहानी मनुष्य को हार न मानने की प्रेरणा भी देती है, लेकिन फिर वही बात..जब तक आपके पास जीतने की ताकत होती है तब तक आप उसका इस्तेमाल करना नहीं चाहते, पर जैसे ही आप हार के सम्मुख खड़े होते हैं, तब आपका जोश जाग उठता है और होता वही है जो आप नहीं चाह रहे थे, जिसे कहते हैं 'हार!'


    ये तो मेरे मन की आतुरता थी। मैं चाहती थी कि मैं अपने इस अनुभव को केवल स्मृतियों में नहीं बल्कि शब्दो में भी सहेज कर रखूं!


    इसलिए ये समीक्षा मैंने की है। मैं आप सब से आग्रह तो नहीं करूंगी, कि आप इस लघु - उपन्यास को पढ़े! लेकिन जैसा कि हर इंसान अपनी पसंदीदा चीज को दूसरों के साथ भी शेयर करना चाहता है और चाहता है कि हमारे जानने वाले भी इसका आनंद लें, और एक उम्दा अनुभव अपने साथ रखें!


    तो इतना जरूर कहूंगी कि अगर आप पढ़ने के शौकीन हैं तो इसे पढ़ सकते हैं और साथ ही साथ मुझे भी बता सकते हैं कि मैं पुस्तक को कितना समझ पायी हूँ या फिर मैंने सिर्फ अच्छाइयों पर ही प्रकाश डाला है या फिर उसकी कमियों को मैंने कितना नजरअंदाज किया है।


    इसी के साथ मैं एक बात और स्पष्ट कर दूं कि कहानी का उद्देश्य मेरे मन को इतना छू गया कि शायद मेरा ध्यान सचमुच किसी कमी पर नहीं गया या फिर शायद कमियां इसमें कहीं थी ही नहीं!


    इसी के साथ मैं अपनी कलम को यही विराम देते हुए आप सबसे विदा लेती हूं।


    मैं, सुरभि गोली..✍🏻

Thursday, June 9, 2022

कालू और मुन्नी की खुशी

 मन किया कि आज तुमसे बात कर ली जाए। सो चले आये है। हाँ! नया साल आ चुका है। जिसका स्वागत बड़े हर्ष से किया हम सब ने। सबको शुभकामनाएं दी। बधाई दी।

मगर इक तुम ही रह गईं थीं। जिसे मुबारकबाद नही दे पाए थे। चलो अब बुरा न मानो। और ले लो हमसे शुभकामनाएं इक्कीस की। प्यारी डायरी! मैं जानती हूँ तुम्हे। तुम मुझे बखूबी समझती हो। इसलिए कभी किसी बात की नाराजगी नही होती तुम्हे मुझसे। तभी तो हर सुख-दुख में तुम्हारे पास दौड़ आती हूँ। और तुम बिना किसी शिकायत के मेरा स्वागत करती हो।

आज बताऊँ क्या कहना है तुमसे मुझे??
मुझे कहना है। इस धूप के बारे में। जो आज अचानक से सर पर आकर बैठ गई है। अब तुम सोचती होगी। कि ये लड़की हमेशा ऐसी अजीब बाते लेकर ही क्यों मेरे पास आती है। कभी धूप, कभी रात, कभी शाम, कभी सुबह..
अब तुम जो सोचो मुझे तो बस आज इस खूबसूरत धूप की ही बाते करनी है और मैं करुंगी।

तुम तो जानती ही हो जनवरी का महीना है, ठंडक का मौसम है। ठिठुरा देने वाली हवाओ का राज होता है इन दिनों तो। बीते कुछ दिनों से इन हवाओं ने ऐसा कहर ढाया है कि सर्दी से नाक लाल हो गई, सच्ची।
मगर यह धूप..क्या कहूँ इसके लिए तो मैं? बहुत प्यार आ रहा है इसपर। इसके आने से केवल मैं ही खुश नही हूँ। इसके आने से सभी बहुत खुश है..चिड़िया, तितली, फूल-पत्ते, मेरा भाई, मेरी बहने..सब। आज कोई शॉल में नही छुपा सब खुल कर अपने कामो में जुटे हुए है।
अरे! सुनो! तुम्हे पता है सबसे सबसे ज्यादा खुश कौन है?
मैं ही बताती हूँ तुम्हे क्या पता। तुम तो दिन भर मेरे कॉलेज बैग में पड़ी रहती हो। कहाँ क्या हो रहा है तुम्हे कुछ अता-पता नही है।

हाँ! तो सबसे ज्यादा खुश है 'कालू' और 'मुन्नी'। लो अब इन डायरी मैडम जी को तो यह भी पता नही होगा कि यह दोनों है कौन?
कालू हमारे मुहल्ले का सबसे समझदार, नेकदिल, और वफादार कहने की तो जरूरत ही नही। क्योकि यह तो उसकी सबसे बड़ी खूबी है। लोग उसकी इसी खूबी से तो जानते है उसे, उसे क्या? उसके पूर्वजों तक को।
समझी की नही की बिल्कुल मुँह फाड़ कर कहना पड़ेगा कि कालू इक कुत्ता है। लो अब क्या? कह ही दिया। लेकिन इसमें परेशानी क्या है। कुत्ता है। तो है। कुत्ते वैसे भी बहुत पसन्द है, उस लड़की को जो मेरी सबसे करीबी दोस्त है। हां! मुझे भी अच्छे लगते है।
अब जान गई न! कालू कौन है? तो बस अब मुन्नी के बारे में जानो। मुन्नी है मोहन मामा की गाय, मोहन मामा को जगत मामा भी कह सकते है। क्यों की उनसे जो भी मिलता है वही मामा बना लेता है अपना उन्हें। अब बताओ? उनकी ऐसी कौनसी विशेषता है कि अनजान तक मामा कहता है? मुझे तो भाई आज तक यह बात समझ न आयी। खैर मुन्नी के बारे में भी जान गई अब तुम। तो अब यह भी जान लो कि मुन्नी और कालू, सबसे ज्यादा खुश क्यों है। वो इसलिए है..क्योकि...।
क्योकि कालू रात दिन ठंडी से कांपता रहता है। यहां वहां अपने दोस्तों के साथ लुका-छुपा घूमता रहता है। और भूख की तो कहो ही मत। इतना दुबला है कि लगता है, महीनों से न खाया बेचारे ने कुछ। उसके दोस्त भी उसके साथ रहते है। लेकिन उनसे भी झगड़ा-झगड़ी होती रहती है उसकी। कभी खाने को लेकर कभी कुछ को लेकर। बेचारा बहुत उदास सा फिरता है। सबसे ज्यादा बदसूरत कालू ही है उसकी मित्रमंडली में। और तो सब ठीक ठाक ही दिखते है। अब तुम सोच रहीं होगीं। की इतना ही दुबला है, और इतना अच्छा लगता है मुझे वो तो उसकी केअर क्यों नही करती। अब वही तो बात है। वो तो मुझसे डरता है भाई! आता ही नही पास और मैं अपने घर से ज्यादा दूर तक जा नही सकती। कुछ खाने को दो तो पहले ही कोई न कोई झपट ले जाता है। और वो बेचारा सबसे डरता है, क्योकि वो बेचारा मरियल सा। और उसके दोस्त बाहुवली टाइप तो नही कह सकते लेकिन उससे तो अच्छे ही है। तो वह अपने दोस्तो से भी डरता है क्योकि उसके दोस्तों का इक नियम है.."भाई, दोस्ती अपनी जगह। और पेटपूजा अपनी जगह।" तो मैं उसकी केयर नही कर पाती इतनी। लेकिन जब कभी अकेला दिखता है। तो कायदे से कुछ डाल देती हूं खाने। वो चुपचाप से आता है और खा कर गुल हो जाता है।
हाँ! तो बता रही हूँ न! वो खुश है क्योंकि आज धूप निकली है धूप निकली है तो उसे कम से कम ठंड का कहर तो नही झेलना पड़ रहा है। भूखा है तो है।
तुम्हे पता है मुझे कैसे पता चला कि वो खुश है। मुझे ऐसे पता चला कि 'टीना मौसी' ने कुछ रोटियां डाली तो कालू के दोस्त दौड़ कर खाने पहुच गये। शायद कालू को पता था उसे कुछ नही मिलने वाला तो वह चुपचाप धूप में बैठा रहा। उसने देखा कि सब चले गए खाने और उसने अपनी पलको को आंखों पर इतनी नर्मी से रखा जैसे उसे भूख प्यार कि कोई परवाह ही नही थी। उसे बस उस धूप का सुख भोगना था।
अब तुम सोच रही होगी कि ये क्या बात हुई। वो पहले से कुछ खा चुका होगा। शायद इसलिए नही गया खाने कुछ। ऐसा भी हो सकता है।

हां ऐसा भी हो सकता है, लेकिन मुझे नही लगता कि ऐसा हुआ होगा। वह बहुत भूखा घूमता है और उसकी कोशिशों के बाद भी कुछ नही मिलता। मैंने बहुत बार उसकी नाकामी देखी है। और उस नाकामी के बाद उसकी उदासी भी। लेकिन आज उसने उदासी की जगह खुशी से आँखे मूंदि। क्योकि वह जानता था, धूप सबकी है, सभी जगह फैली है। जितना उसको दिख रहा था उतनी जगह तो थी ही धूप से भरी। इसलिए वह खुश था कि उससे यह धूप का सुख कोई नही छीन सकता। और शायद वो सबसे ज्यादा खुश था।

अब मुन्नी की बात बताती हूँ, मुन्नी की बात ऐसी है कि मुन्नी की सुबह शाम भी कुछ कालू की तरह ही थी। मुन्नी को मोहन मामा सुबह 6 बजे छोड़ देते थे चरने के लिए। और दिन भर ठंड में ठिठुरती हुई मुन्नी शाम को अपने घर पहुँचती थी और वहां भी कांपती रहती थी। बहुत दिनों से मैं उसे भी देख रही थी। वह आसमान को नही देखती थी। मगर उसे भी किसी चीज की कमी खलती रहती थी। उसकी आँखों मे भी किसी का इंतजार नजर आता था। मैं सोचती रहती थी। कहीं इसका कोई प्रेमी तो नही बुछुड़ गया।
अब तुम हँसो मत ठीक!
हां! लेकिन मुझे आज पता चल गया कि किसका इंतजार मुन्नी की आंखों में झलकता था।
आज जब देखा मुन्नी कालू के बगल में बैठी है और कोई कपकपाहट उसके बदन में नही। उसकी आँखों मे आज अलग ही रंग था। जैसे उसका इंतजार पूरा हो गया हो। वह आ गया हो जिसका इतंजार वह क़ई दिनों से कर रही थी।
और शायद वह इसी धूप का इंतजार कर रही थी। क्योकि आज वह उदास नही थी।

देखो न डायरी रानी। हम लोग कितने खुशनसीब है कि हर मौसम से हर आपत्ति से बचने के लिए हमारे पास साधन है। फिर भी हम रोते गाते फिरते है। और ये ये बेचारे बस इंजतार ही कर सकते है। ठंडी में धूप का और गर्मी में बरसात का, और बरसात में गर्मी का।

अब जितना मैं तुमसे बतिया सकी सो बतिया लिया। अब बाद में बात करूंगी। बहुत काम हैं। तुम्हे क्या है बस इक तरफ बैठना ही है न!

चलो! अब नाराज न हो। तुम मेरे लिए सबसे प्यारी हो। bye..बेबी।

तुम्हारी सुरभि...✍🏻

Wednesday, June 8, 2022

टूटे दीये!

 "यहां रास्ते मे बैठ कर क्या कर रही हो चाची? चलो! घर चलो! हम छोड़ देते है तुम्हें।" 


"न रे! तू जा। हम आ जायेंगे।"


गोलू अपनी साइकिल पर बैठा और हवा की तरह उड़ गया।


"अरे! गोलू हमाई अम्मा दिखी थी का तुमको?"


"अब दिखी तो थी धन्नो! मगर आयीं नही साथ। हमतो कहे थे कि चलो छोड़ देते है घर।"


"हम सब समझत हैं!" धन्नो मुँह बना कर अंदर दमकते हुए चली गयी।


"देखा। भोलू! अम्मा न आयी नहीं! 5 बज गये। अब हम कहे थे कि हमको कपरा चाहिए। शाम को हाट चलेंगे। लेकिन न, पैसा कहां जी से छूटत है उनके।"


"हां रे धन्नो..हमनें कितनी मेहनत कराई ती उनकी दीया बनाये में। मगर कहाँ सोचत है हमाई खुशी की।"


भोलू किसी डिब्बे में कंचे रखता हुआ बोला।


तभी विमला अपनी टोकरी सिर से उतारते हुए कच्चे आँगन के दरवाजे से झुक कर निकली और टोकरी खाट पर रख दी।


"पूजा के लिए मीठा-बिठा लाई हो कि ऊ भी नहीं।" धन्नो माँ (विमला) से झल्लाते हुए बोली।


"दीपावली है आज, दीपावली..सब के घर मे रंगबिरंगे बलब लगे हैं, रंगोली बनी है और हम हैं कि इन्ही 2 बरस पुराने कपरो में घूम फिर रहे हैं।" धन्नो फिर विमला को पानी का गिलास देते हुए बड़बड़ाई।


"टोकरी से जा कर मीठा और केले निकलकाल ला! जा! थाली सजा कर रख दे पूजा की और हाँ उ जो हमने घर के लिए दीये बचा कर रखे थे वह भी लिआओ, जा के।" धन्नो चूल्हे पर दूध का बर्तन रखते हुए भोलू से बोली।


भोलू ने जाकर टोकरी से कपड़ा हटाया कि वह हतप्रभ रह गया।

"ई का है अम्मा.." भोलू बोला।


"इक मोटरसाइकिल वाला, धक्का मारत निकल गया। का बेचते? का कपरा दिलाते। तोको और धन्नो को।"


तभी धन्नो मां की बात सुनकर वहां दौड़कर आई और टोकरी में एकटक देखने लगी।

टूटे हुए दीये धन्नो की आँखों के सामने टूटे हुए सपनो से पड़े थे।

धन्नो ने फिर टोकरी को उसी कपड़े से ढक दिया जिससे वे पहले ढके हुए थे और विमला की चोट पर दवा लगा कर, इक दीया मंदिर में जलाकर रख दिया।


लेखिका - सुरभि गोली (मौलिक रचना)


Tuesday, June 7, 2022

तीसरा प्यार

 



    तीसरा प्यार 


    चलिये मिलाती हूँ मैं अपने एक ऐसे किरदार से, जो मेरे और आपकी ही तरह है।


    और वो है रागनी! एक मिडिल क्लास फेमिली में पली बढ़ी गुस्से वाली, नखरे वाली, प्यारी भी और कहीं - कहीं गम्भीर सी लड़की।


    रागनी का बचपन भी हमारी और आपकी तरह ही बीता, कभी बड़ो का प्यार पा कर तो कभी डांट, कभी भाई बहनों से लड़ते हुए तो कभी उनके साथ हजारों खुशियां लूटते व खेलते खाते हुए!


    लेकिन अब रागनी एक कॉलेज स्टूडेंट थी, और भले ही आप लोग बहुत ही इंटेलिजेंट रहे हों, पर रागनी एक औसत छात्रा थी। न ही ज्यादा होशियार थी वो पढ़ाई में और न ही बिल्कुल ढप्प!


    आज रागनी का लास्ट पेपर था, जिसे वो बहुत जल्दी निपटा कर आ गयी थी, और अब वो उस जगह पर बैठी थी जहां उसके दोस्त मिलते थे, लेकिन...


    "पता नहीं! ये उल्लू के पट्ठे ऐसा क्या लिखते हैं पेपर में? टाइम खत्म होने से पहले आते ही नहीं!" रागिनी उस जगह पर अपने किसी दोस्त को न पा कर बड़बड़ाई, पर तभी उसके सिर पर किसी ने कुछ मारा..


    "अउच.."


    "अउच! क्या बोल रही थी तूँ?? उल्लू के पट्ठे हां??" ये और कोई नहीं रागिनी की बेस्ट फ्रेंड रानो थी, जो थोड़ी सी ज्यादा हेल्थी थी मगर किसी डॉल से कम नहीं दिखती थी।


    "तूने मुझे मारा कैसे??" रागिनी रानो की ओर मुड़ कर बोली और उसके हाथ से रोल किया हुआ एक्जाम पेपर छीनने झपटने लगी।


    पर तभी वहां किसी ऐसे ने दस्तख दी, जिसे देखने से रागिनी के मुँह पर ताला पड़ जाता था और हाथ पैरों में ठंड लग जाती थी।


    "रानो! तुम यही सब करने आती हो यहां? मैं कब से तुम्हारा वैट कर रहा हूँ बाहर!" ये रानो के पापा श्री महेश कुमार जी थे, जिन्हें रागिनी फूटी आंख नहीं भाती थी। वे अपनी बेटी रानो को कई बार मना कर चुके थे कि वो रागिनी के साथ न रहा करे!


    मगर दो बेस्ट फ्रेंड्स, दो प्रेमियों से कम नहीं होती बल्कि उनका लगाव किसी प्रेमी जोड़े से भी ज्यादा गहरा होता है, इसलिए जाहिर था कि रानो पर उसके पिता की ये बात कोई असर नहीं कर पाती थी।


    "लेकिन अभी तो पूरा टाइम भी नहीं हुआ है पापा! आप इतने जल्दी क्यों आये मुझे लेने??" रानो ने गम्भीरता से अपनी वॉच पर नजर डालते हुए कहा।


    रानो का सवाल सुनते ही मिस्टर महेश कुमार ने एक बार रागिनी को कुंठित नजरो से निहारा और फिर बोले -


    "तुम्हारे भाई की शादी पक्की कर के लौंट रहा था तो सोचा तुम्हे भी साथ ले लूँ, और फिर तुम्हारे ही पसंद की मिठाईयां ले कर घर पहुँचूँ!


    वैसे भी, पंद्रह मिनिट ही तो बचे थे एग्जाम का टाइम खत्म होने में!" महेश कुमार जी की बातें सुन कर रानो और रागिनी के चेहरे देखने लायक थे।


    ऐसा लग रहा था जैसे रानो के पिता ने अपनी बेटी और रागिनी को कोई बिजली का झटका दे दिया हो।


    "लेकिन पापा...." रोना बौराई हुई सी बोली।


    "मुझे तुम्हारी कोई बकवास नहीं सुन्नी है, चुपचाप मेरे साथ चलो!" रानो अपनी बात पूरी कर पाती उस के पहले ही मुकेश कुमार जी ने रानो को उंगली दिखा कर डांटते हुए चुप करा दिया।


    रागिनी जो अब तक महेश  को ही देख रही थी, उसने अपनी आंखें नीची कर ली!


    उसकी आंखें भर आयी थी, वो इतनी परेशान नजर आ रही थी कि रानो उस को इस हालत में छोड़ कर जाने की सोच भी नहीं पा रही थी।


    "रागिनी!"  रानो ने उदास आवाज में कहा।


    "तुम्हे सुनाई नहीं देता रानो?? या फिर अब तुम्हे अपने बाप से बढ़ कर ये लड़की है??"  महेश कुमार ने कहा।


    "पर पापा मुझे उससे थोड़ी तो बात करने दीजिए..." रानो ने रिक्वेस्ट के साथ कहा।


    "मैंने कहा न! चुपचाप चलो घर..." अपने पिता को अब रानो और नहीं टाल सकती थी, उसने रागिनी की तरफ एक बार देखा और नीची नजरें कर के चली गई।


    रागिनी भागती हुई एक क्लास रूम में पहुँची!


(आगे पढ़िए अगले भाग में...)


  लेखिका - सुरभि गोली (मौलिक रचना)

Monday, June 6, 2022

Ik kiss

 "हलो"..अभय  कॉल रिसीव करते हुए बोला ...वह दुकान पर जाने की तैयारी कर ही रहा था की फोन की घंटी बज उठी थी ....


""" आप अभय बोल रहे है न ""

उधर से मर्दानी आवाज गूंजी ...

""हा जी ,कहिए    आप कौन ???

""मै अपर्णा का पति विवेक बोल रहा हूं , आप इस समय कहा पर हैं??"" उधर से आवाज आयी ...


""अभी वाराणसी मे ही हूं ,कहिए क्या बात है ??   


"" कृपया शिवांस हास्पिटल बाबतपुर चले आइए शीध्रातिशीघ्र...""आवाज मे घबराहट थी .....

"मगर .....बात क्या है ""

"" बस आप जितनी जल्दी हो सके आ जाइए  ...""

इतना कहकर  उधर से फोन काट दिया गया ...


अभय सोच मे पड गया ...आखिर बात क्या है ..कही अपर्णा ....नही नही ऐसा नही हो सकता ...

उसने तुरन्त बाबत पुर की बस पकड ली करीब एक घंटे का सफर था ....

जैसे जैसे बस  गति पकडती जारही थी अभय के मस्तिक मे पुरानी यादे ताजा होती जा रही थी .....अभी तीन महीने पहले ही तो अपर्णा की शादी हुई थी .....कितना रोई थी वो तुलसी घाट पर अंतिम बार मिलते समय.....


वह कालेज के दिनो मे खोता चला गया ...


"" ओय मिस्टर कुछ ज्यादा ही पढ लिए हो क्या "" कालेज के बाहर अभय का रास्ता रोकते हुए अपर्णा बोली थी....


"" क्यूं ज्यादा पढना बुरा तो नही है ....सबको पढना चाहिए....""

अभय ने शालीनता से जवाब दिया था ...


"" उपदेश किसी और को देना ....आज के बाद जबतक मै सर के सवाल का जवाब न दे दू बोलना भी मत """

अपर्णा उसको धमकाते हुए चली गयी थी ...


पर अभय कहा मानने वाला था ...सर के पूछने की देर थी उसका जवाब तैयार रहता था ..पर अपर्णा खुद को मेधावी साबित करना चाहती थी ....

इसी के चलते एक दिन अपर्णा ने उसको कुछ लडको से पिटवा भी दिया .....

उसको ज्यादा चोटे तो नही आयी पर शर्ट फट गयी थी ...उसके पास केवल यही एक शर्ट थी .....

किसी तरह जगह पैबंद लगाकर वह उसी को पहन कर. कालेज आने जाने लगा ...और चारा  भी क्या था ...वाराणसी मे पढ रहा था यही बडी बात थी ...


पहले दिन तो अपर्णा उसका हुलिया देखकर खूब हसी थी पर जब रोज ही वह यही कपडे पहन कर आने लगा तो उससे रहा नही गया ....


""तुम यही फटी शर्ट रोज रोज क्यू पहन कर आते हो ...."" अपर्णा ने  एक दिन रास्ता रोक कर  पूछा ....


वह चुपचाप सर झुकाए खडा रहा ...

"" बोलते क्यू नही ऐसे क्यू खडे हो ....और कपडे नही है क्या ....??


""नही ...इसके पास यही एक शर्ट है ""

अभय का दोस्त बीच मे ही बोल पडा और वो आगे बढ गये .....


अपर्णा को काफी पछतावा हो रहा था ...

उस दिन से अपर्णा का अभय के प्रति व्यवहार बिल्कुल बदल गया ...

उसकी मासूमियत ...शालीन सा व्यवहार..

एक तरह से वह उसको अच्छा लगने लगा था ....

वह एक विचित्र सा आकर्षण महसूस कर रही थी ...

वह अब हरदम उससे बात करने का बहाना ढूंढती पर अभय पहले की ही तरह शांत ..और विनम्र था....


वह अभय से इतनी अधिक प्रभावित हो चुकी थी की अगर किसी दिन वह कालेज न आ पाता तो बेचैन हो जाती थी ...पर अभय जस का तस था उसने तो कभी अपर्णा की तरफ आंख उठाकर देखा तक न था ....


उस दिन अपर्णा बहुत बेचैन थी ...होती भी क्यू न ..आज तीसरा दिन था और अभय का कुछ अता पता न था 


जब उससे रहा न गया तो वह पता करती हुइ उसके रूम पर पहुच गयी थी ....

वहा का नजारा देख कर वह स्तब्ध थी 

.सारा सामान इधर उधर बिखरा था ,और वह एक तरफ चटाइ पर पडा कराह रहा था ...उसने छूकर देखा  काफी तेज बुखार था .....

तुरंत. डाक्टर के पास ले गयी ...

जब तक अभय स्वस्थ न होगया अपर्णा ने पूरी देख भाल की उसकी ...

उसके मन मे भी अपर्णा के प्रति लगाव बढ गया  था.....अब दोनो घंटो साथ बिताते ..


"""चलो पिज्जा खाते है आज""" अपर्णा ने कहा...


""ये पिज्जा क्या होता है ???"".... अभय ने अनजान बनते हुए पूछा ...

"""अरे उल्लू के पट्ठे , पिज्जा नही खाया क्या कभी ...ये मेरा फेवरेट है ....."""


""नही खाया , कितने का मिलता है ??""

"" डेढ सौ ....दो सौ ...जैसा लो पचास का भी मिलता है ...."". अपर्णा ने हसते हुए कहा ...


""" बाप रे बाप रहने भी दो ,डेढ सौ मे तो मै पॉच किलो चावल खरीद लेता हूं ,जो एक महीना चलता है ...."". अभय ने सोचते हुए कहा ...


""हे भगवान ....चलो तुम मत देना पैसे मै दूंगी ...."" अपर्णा खीझते हुए  बोली थी ....


ऐसे ही दिन बीत रहे थे ...वह दिन भीआया जब इनकी भी पढाई पूरी हो गयी ....


आज कालेज का अन्तिम दिन था ....कालेज से निकल कर दोनो गंगा क् किनारे किनारे घूमन् निकल पडे ... रात होने लगी थी पर दोनो को कोई जल्दी न थी ....


चांद पूरे शबाब पर था ...चारो तरफ चांदनी 

फैली हुई थी ...गंगा की धार कल कल करती बह रही थी ...वातावरण एकदम शांत था ...दूर नदी मे कोइ नाविक नाव खेता चला जारहा था ...बडा ही सुहावना दृश्य था ...


अपर्णा की गोद मे सिर रखे अभय एकटक उसी को देखे जा रहा था ....

और वह उसके बालो से खेल रही थी ...


"" अपर्णा""".....अभय ने हौले से पुकारा ...

"" बोलो ....''भर्राई सी आवाज मे बोली थी अपर्णा ....


"" मम्मी से बात की ""

"" ऩही,घर जाकर करूंगी ""

""एक  बात कहू ,बुरा तो न मानोगी ....""

""कभी  बुरा माना है क्या ,जो आज मानूंगी """

"" एक किस कर लूं""

"" नही,शादी के पहले नही""

और वह उठ कर चल पडी थी ....


एक महीने बाद ही अचानक एक इन्वाइटेशन कार्ड मिला अभय को ...

उसे खोलते ही उसका दिल धक सा रह गया ...

यह अपर्णा की शादी का कार्ड था ...


उसका दिल खून के आंसू रो रहा था ...


""बाबत पुर ...बाबत पुर ...""

अचानक आवाज सुनकर उसकी तन्द्रा भंग हुई .....

वह बस से उतर कर हास्पिटल पहुचा 

मेन गेट पर ही विवेक मिल गया 

वार्ड पहुचते ही  उसका गला रूध गया आखो से झर झर आसू गिरने लगे थे ....बेड पर. अपर्णा कृश काय पडी थी ....

अभय को देखते ही उसके कान्तिहीन चेहरे पर चमक उभर  आई ...वह मुसकुरा रही थी ....आंखो से झर झर आसू बह रहे थे ...अभय लपक कर उसके पास पहुचा ...उसका हाथ अपने हाथो मे ले लिया .....और फफक पडा ...

"" अभय ""... अपर्णा की बहुत ही धीमी आवाज आयी ....

अभय ने आसुओ को पोछते हुए उसकी तरफ देखा ....

""" अब मै जा रही हूं ,"""

""नही तुम्हे कुछ नही होगा मै हू न ""

"" नही अभय. बहुत देर हो गयी ....अब जा रही हूं . ..कहा था न तुम्हारे सिवा कोई टच भी न कर पायेगा ,,,

अभय बच्चो की तरह बिलख बिलख कर रो  पडा

"" अभय""

अभय ने उसकी तरफ देखा .....

एक किस करदो अभय ,यही अंतिम इच्छा है""""

सभी की आंखे नम हो उठी थी ..


अभय ने अपने होंठ उसके होंठो पर रख दिया ........

अपर्णा के हाथ ढीले पड गये ....चेहरा एक तरफ लुढक गया .......


कही दूर से संगीत की आवाज आरही थी ...


मीत न मिला रे ....मन का ...


लेखक - सूरज शुक्ला (मौलिक रचना)

२४/११/२०१८

Hmari kahaniya: सारंगा तेरी याद में!

Hmari kahaniya: सारंगा तेरी याद में!: "सारंगा तेरी याद में.."   खेत के बीचों बीच "भगवान काका" रोहित को मुकेश कुमार माथुर साहब के गीत "सारंगा तेरी याद...

Hmari kahaniya: कजरी!

Hmari kahaniya: कजरी!:      पेरिस! फ्रांस कंट्री की केपिटल सिटी, जो दुनिया के सब से खूबसूरत शहरों में से एक मानी जाती है; अर्ट्स एंड फेंशन में भी ये बहुत आगे है।  ...

Sunday, June 5, 2022

Hmari kahaniya: वो आखरी रात!

Hmari kahaniya: वो आखरी रात!:      मोहिनी की जिंदगी इतनी रंगीन थी कि वो उन रंगीनियों से तंगा गई थी, और अब वो एक ठहराव चाहती थी; पर शायद मोहिनी इस बात से अनजान न हो कर भी ...

वो आखरी रात!

     मोहिनी की जिंदगी इतनी रंगीन थी कि वो उन रंगीनियों से तंगा गई थी, और अब वो एक ठहराव चाहती थी; पर शायद मोहिनी इस बात से अनजान न हो कर भी अनजान थी कि, वो जिस हकीकत से निकलने का ख्वाब पाल पर बैठी हुई है, वो मुमकिन हो कर भी नामुमकिन है।

    

    उस के जाते ही मोहिनी का बदन टूटने सा लगा था, जब उस ने अंगड़ाई ली तो नाजुक गुलाब भी शर्मा गये।

    

    खूबसूरत से थोड़ी सी ज्यादा खूबसूरत मोहिनी ने आज गहरे लाल रंग के लहंगे चोली को अपने गोरे बदल का आवरण बनाया था, उसका गला किसी गहने के अभाव में भी गहने की उपस्थिति जितना खूबसूरत ही लग रहा था, कानों में लंबे लंबे झुमके डाले हुए थे, धुँधराले और हल्के भूरे बाल मोहिनी की कमर को चूम रहे थे,

    

    उसने अपने गालों पर गलतीं से सरक कर आई बिंदी को आईने में देखते ही, माथे पर न सजा कर आईने पर ही लगा दी।

    

    और मतबाले कदमों से खिड़की की ओर चली, खिड़की से बाहर देखने से ऐसा लग रहा था मानों, मोहिनी की आज बारात आने वाली हो,

    

    मगर मोहिनी की किस्मत में तो दूल्हे वाली कोई लकीर की न थी, बारात की बात करना यहां घाव पर नमक लगाना होगा।

    

    दूल्हा न सही पर, कोई था जिसका इन्जार मोहिनी की आंखों में सदा रहता था। पर जिसका इंतजार मोहिनी करती थी, उसे तो फुर्सत ही नहीं मिलती थी, कि आ कर मोहिनी का ये इंतजार मुकम्मल कर दे।

    

    उदास सी हो कर मोहिनी सजे हुए बिस्तर की तरफ बड़ी और चादर की सिलवटों को ठीक करते हुए शिकायत के अंदाज में बोली - "लगता है तुम आज भी नहीं आओगे! मैं ही बाबरी हूँ जो हर रात तुम्हारे इंतजार को आंखों से बसाए बैठी रहती हूं..."

    

    तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तख दी, शिकायत करने वाली मोहिनी का दिल जोरो से धड़कने लगा, चेहरे पर लाली उभरने लगी, लव अनचाहे ही खिलने लगे।

    

    लग रहा था जैसे मोहिनी का इंतजार आज खत्म होने वाला है या हो ही गया है।

    

    जब मोहिनी ने दरवाजे न खोले तो दस्खत दोबारा हुई,

    

    मोहिनी ने हाथ जोड़े और बोली - "भगवान! आज तो सुन लेना..." कह कर मोहिनी दरवाजे की ओर लपकी और झट से दरवाजा खोल दिया,

    

    मोहिनी की नजरें उठी कि उठी रह गई,

    

    एक नोजवान जिसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट है और कंधे पर अध लटका हुआ बैग!

    

    कुछ देर तक मोहिनी और उस लड़के की नजरें मिलती रहीं, अचानक ही दो सजी धजी लड़कियां आपस में झगड़ती हुई वहां से गुजरी तो, मोहिनी और लव, दोनों ही के होश जाग उठे।

    

    मोहिनी ने लव का हाथ खींच कर अंदर किया और दरवाजे बंद कर दिए,

    

    लव जा कर सीधा बेड पर बैठ गया,

    

    मोहिनी की आंखें न जाने क्या सोच कर पसीज गयी, खिला हुआ चेहरा मुरझा गया, मोहिनी की ये उदासी लब के दिल को चुभी और वो बोल उठा -

    

    "मोहिनी! तुम अचानक उदास क्यों दिखने लगीं??"

    

    मोहिनी तुरंत न बोल कर, आहिस्ता कदम बढ़ाते हुए झुकी नजरों के साथ लब की ओर बढ़ने लगी, लब के नजदीक पहुचते ही वो उसके पैरों के पास नाचे जमीन पर बैठ गयी, ये मोहिनी की अजीब सी आदत थी, वो हमेशा लब के पैरों के पास ही बैठती थी, शायद उसे उसकी गोद में सिर रख कर उससे बात करना पसंद था,

    

    जैसा कि उसने अभी किया,

    

    "लब! तुम्हे इस मोहिनी की याद नहीं आती??" कहते हुए मोहिनी की आंखों से एक आंसू की बूंद लुढ़क पड़ी।

    

    लब ने भी हमेशा की तरह अपनी गोद में रखे मोहिनी के सिर को सहलाते हुए कहा - "याद न आती तो क्या मैं आता??"

    

    "याद आती तो रोज आया करते! कभी - कभी तो मेहमान आते हैं, अपने तो हमेशा पास रहते हैं।" मोहिनी के स्वर में हल्की शिकायत झलकी।

    

    "मोहिनी! क्या तुम से कुछ छुपा है?? सब जानती हो न! मैं रोज तुम से मिलने नहीं आ सकता यहां पर! फिर हर बार एक ही शिकायत क्यों??" लब ने कहा।

    

    "क्योकि तुम्हे मुझ पर तरस नहीं आता, तुम नहीं जानते कि मैं कितनी तखलीफ़ में हूँ, तुम जानते हुए भी अपना वादा नहीं निभाते! पिछले तीन साल पुराना वायदा है तुम्हारा, तुम्हे उसे पूरा करने का ख्याल नहीं आता! तुम ने कहीं मुझ से दिल्लगी तो नहीं की थी न! लब!" मोहिनी ने सिर को उठाते ही लब की ओर नजरे फेरीं।

    

    लब के होठ जैसे सी गये, आंखें शर्म से झुक गई!

    

    मोहिनी के लिए ये कोई छोटी बात नहीं थी, अंदर से मोहिनी कांप सी उठी!

    

    क़ई सवाल इकट्ठे ही जहन में उठ पड़े, पर मोहिनी के होठ जैसे उलझ गए, क्या पूछे?? क्या कहे??

    

    कुछ पल तक मोमबत्ती के उजालों से जगमगा रहा, गुलाबो से महक रहा कमरा, खामोशी के बीच घिरा रहा।

    

    "लब! तुम मुझ से दिल्लगी नहीं कर सकते न! तुम तो मुझ से प्यार करते हो न! तुम ले जाओगे न मुझे इस नरक से निकाल कर तुम्हारी दुनिया में..??" मोहिनी के चेहरे को देख कर एकबारगी आप और हम भी उलझ जाते, वो डरी हुई है? घबराई हुई है? या उम्मीद से भरी हुई है?? नहीं समझ सकते थे।

    

    "मोहिनी! आज तुम्हारा जन्मदिन है न! चलो, हम सेलिब्रेट करें.., देखो! मैं तुम्हारे लिए क्या लेकर आया हूँ.." लब ने बात को इधर उधर करते हुए कहा और अफ़रदफ़्री के साथ अपने बैग से खूब सारी चोटलेट्स निकालने लगा, एक केक भी था!

    

    मोहिनी, लापरवाही से लब को ही निहारती रही, जहां वो जाता, वही उसकी निगाह चल पड़ती, जहां वो रुकता वहिं रुक जाती, होंठ हल्के खुले हुए थे, मानों..बंद करने की उसे सुध भी नहीं थी।

    

    लब ने पास से एक स्टूल सरकाया, बिस्तर पर बिखरे खुशबूदार गुलाबो को उस पर बिछाया और केक को उस पर रख दिया, दो - दो नम्बर वाली दो कैंडल्स निकाल कर लब ने केक के बीचों बीच जमाया और कमरे को रोशन करने वालो मोमबत्तियों में से एक को उठा कर उससे केक पर जमाई हुई कैंडल्स जला दी।

    

    उसने मोहिनी के माथे को चूमा और हाथ में प्लास्टिक का चाकू पकड़ा कर बोला, "मोहिनी! इस केक को काटते हुए ये सोचना कि ये मेरा गला है!" कहते हुए लब का गला भारी हो गया और चेहरा शक्त दिखाई देने लगा।

    

    सुनते ही मोहिनी की नजरें हैरानी से लब के चेहरे की ओर दौड़ी!

    

    "मोहिनी! सच कहूं तो मैं यहां आना ही नहीं चाहता था आज!" लब ने कहा।

    

    मोहिनी अनायास ही मुस्कुरा उठी, उसकी आँखों में आंसू तैर गये - "फिर क्यों आ गए??"

    

    "सोचा! तुम त्यौहार सिर्फ अपने इस दिन को जन्मदिन को मानती हो, और इसे ही दिल से मनाती हो, इसलिए..इसलिए मैं नहीं चाहता था कि मेरे न आने से तुम इसे भी यूंही गुजार दो!" लब ने कहा।

    

    "न आते तो शायद गुजर भी जाता! अब तो गुजारना भी मुश्किल होगा।" मोहिना ने नजरें मोड़ कर जमीन पर ठिकाई।

    

    "मैं जानता हूँ तुम बहुत उदास हो..." आगे लब कुछ कहता उसके पहले ही मोहिनी बोली -

    

    "उदासी? ये तो बहुत छोटा शब्द है! और लगता है जो मेरे दिल में ठहर गया है उसके लिए अब तक तो कोई शब्द भी नहीं ईजाद हो पाया!" दिल पर चोट सी खाई हुई मोहिनी ने मुस्कुरा कर कहा।

    

    "देखो मोहिनी! मैं अपनी मां का दिल नहीं तोड़ सकता..." लब ने कहा।

    

    "पर मेरा तोड़ सकते हो! हां, ये लाजमी भी है...एक वेश्या को मां की जूती की भी तुलना नहीं कर सकती!" मोहिनी की आंखें बरस पड़ी।

    

    "मोहिनी..., कितनी बार कहा है तुमसे अपने लिए ये शब्द इस्तेमाल मत किया करो! मैंने तुम्हे कभी इस नजर से नहीं देखा..." लब की आवाज में एक दर्द से फुट पड़ा।

    

    "कहने न कहने से सच तो नहीं बदलेगा! खैर...इस केक को अब मैं नहीं काट सकती! तुम इसे ले जाओ!" मोहिनी उठ खड़ी हुई।

    

    "लेकिन मेरा मन हमेशा दुखेगा ये सोच कर की मेरी वजह से तुमने अपना त्योहार नहीं मनाया!" लब ने मोहिनी के पास आ कर कहा।

    

    "ये तो ये बोलते वक़्त सोचना चाहिए था कि इसे मेरा गला समझ कर काटो! मैं...मैं तुमसे मोहोब्बत करती हूं, और मोहोब्बत में जान दी जाती है ली नहीं जाती।

    

    तुम अब यहां से चले जाओ लब! मैं और खुद को बेवश नहीं देख सकती.., चले जाओ वरना मैं मैं खुद को रोक नहीं पाऊंगी!" मुट्ठियाँ कसते हुए मोहिना लब से बोली।

    

    "जो भी दिल में हो कैछ डालो मोहिनी! मैं तुम्हे इतनी बड़ी तखलीफ़ दे सकता हूँ और तुम मुझे दो गालियां भी नहीं देना चाहती???" लब जो मोहिनी के बिल्कुल पीछे खड़ा था, तड़फ कर बोला।

    

    मोहिनी खुद को और रोक न पायी और लब के सीने से लग कर फुट फुट कर रोने लगी।

    

    लब की आंखे भी आंसुओ को संभाल न सकी, लब ने मोहिनी को बाहों में बेतहाशा भर लिया।

    

    दीवारें ये उदास मंजर देख कर सहर उठी, ख़ामोशी चारों ओर फैली रही।

    

    बस आहे! और सिसकियां हक जमाये हुई थी।

    

    "क्यों किया मेरे साथ तुमने ऐसा लब! क्या मैं इंसान नहीं हूं?? क्यों मुझे विश्वास में रख कर अकेला कर दिया?? तुम्हारे वादे के सहारे ये तीन साल गुजारे हैं मैंने इस जहन्नुम में.., अब आगे किस उम्मीद के साथ सांसे लूँगी???" बिलखती हुई मोहिनी बोली।

    

    लब निढाल सा मोहिनी के पैरों में गिर गया, और किसी बच्चे की तरह रो पड़ा।

    

    पता नहीं मोहिनी लब को कभी माफ कर पाई या नहीं! लब मोहिनी का दिल तोड़ने का अपराध भुला पाया या नहीं, मगर लब की मां, अपनी बहू और लब की बीबी अनुप्रिया के आने से बहुत खुश है।

    

    समाप्त!

    

लेखिका -  सुरभि गोली (मौलिक रचना)

Saturday, June 4, 2022

कजरी!

     पेरिस! फ्रांस कंट्री की केपिटल सिटी, जो दुनिया के सब से खूबसूरत शहरों में से एक मानी जाती है; अर्ट्स एंड फेंशन में भी ये बहुत आगे है।


    इस खूबसूरत शहर में सिर्फ खूबसूरत जगहें ही नहीं बल्कि खूबसूरत लोग भी रहते हैं, जिनमें से एक थी "ऐमिली" जो एक मोर्डल थी।


    एमिली अपनी खूबसूरती और अदाओं से हमेशा फेंशन की दुनिया में चर्चाओं का हिस्सा बनती थी,


    लेकिन वो फिर भी न जाने क्यों उदास और परेशान नजर आती थी, उसका खूबसूरत सा घर भी उसकी एक मुस्कुराहट पाने के लिए बैचैन सा रहता था, मगर एमिली सिर्फ अपने काम के वक़्त ही मुस्कुराया करती थी, जैसे वहां पर मुस्कुराना उसकी बहुत बड़ी मजबूरी हो!


    न तो एमिली का कोई खास दोस्त ही था और न ही कोई बॉयफ्रेंड! पर बनना बहुत से लोग चाहते थे, लेकिन एमिली तो जैसे अपनी उदासी के अलावा किसी को अपने दिल में रखना ही नहीं चाहती थी।


    ऐमिली को आज, बेस्ट मॉर्डन ऑफ द ईयर का अवॉर्ड मिलने वाला था, जिसके लिए वो अपने शानदार कमरे में मिरर के सामने बैठी तैयार हो रही थी, वो हमेशा खुद ही तैयार होती थी, उसका फेशन सेंस काफी जोरदार था,


    इतनी बड़ी मॉर्डन होने के बावजूद उसका ऐसा करना आश्चर्यजनक था लेकिन..


    कुछ ही देर में ऐमिली पूरी तरह तैयार थी, वो अपने फ़ेवरेट पिंक कलर की ड्रेस में बहुत खूबसूरत लग रही थी, ऐमिली साफ रंग की लड़की थी, उसका कद ऊंचा और बाल भूरे रंग के थे,


    "परफेक्ट लग रही हूं.." उदासी भरी आवाज में उसने खुदको आईने में देखा और बोली, इसके बाद उसने अपनी गर्दन दाई और मोड़ी, जहां दीवार पर उसके मॉम और डेड मिस्टर एंड मिजेस सक्सेना की फोटोज थीं..


    मिस्टर सक्सेना इंडियन थे और एमिली की मां पेरिस की, जो मिस्टर सक्सेना से शादी करने के बाद मिसेज सक्सेना बन गईं थी, ऐमिली ने थोड़ी खूबसूरती उसने भी चुराई थी, लग रहा था।


    उसने धीरे धीरे उस फ़ोटो की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया और सामने खड़ी हो कर बोली - "मॉम! डेड! काश आप दोनों भी इस वक़्त मौजूद होते, और देखते कि आपकी बेटी ऐमी ने पेरिस का दिल जीत लिया है..." कहते हुए एमिली की आंखें नम हो गईं।


    "मॉम - डेड! पता नहीं मैं क्यों अब तक जिंदा हूँ?? न तो मैं कोई दोस्त बना सकती हूं और न ही किसी को अपनी फैमिली, जानते हैं आप! कितने अच्छे अच्छे लोग हैं मेरी टीम में? जो मेरे दोस्त बनना चाहते हैं, मुझ से अपनी ढेरों बातें शेयर करना चाहते हैं..और मैं..मैं भी तो यही चाहती हूं पर..." कहते हुए एमिली का गला भारी होने लगा, उसने अपना सिर लाचारी से झुकाया और अफसोस के साथ हिलाते हुए चुप हो गई।


    तभी उसका फोन बजा,


    उसने अपने आंसू एक नेपकीन से साफ किये और नाम देख कर कॉल एक्सेप्ट करते ही बोली - "मैं रेडी हूँ, आधे घण्टे में पहुँच जाऊंगी!" कह कर उस ने कॉल तुरंत कट कर दी।


    वो अपने खूबसूरत पर सूने घर से निकल कर उस शाम बाहर निकली और अपनी कार में बैठ कर पेरिस के सब से फेमस स्टूडियो के लिए निकल गई, जहां अवॉर्ड फंक्शन रखा गया था।


    वहां पहुँचते ही ऐमिली भीड़ से घिर गई, उसे सिक्योरिटी देने के लिए उसके गार्ड्स भी उसके पीछे ही गाड़ी से आये हुए थे, वो किसी को भी अपने बेहद नजदीक नहीं रहने देती थी,


    मीडिया वाले और आम जनता उसका एक ऑटोग्राफ पाने के लिए एक दूसरे को कुचल डाल रहे थे, मगर ऐमिली सिक्योरिटी के साथ स्टूडियो के अंदर चली गई, वो किसी को आंख भर कर देख भी नहीं सकती थी, उसने तो जैसे इस दुनिया में औपचारिकता करने के लिए ही जन्म लिया था।


    स्टूडियो के अंदर जाते ही, उसे कंग्रेचुलेशन्स कहने वाले भी काफी लोग मिले, जो बड़े बड़े लोग थे, कोई एक्टर तो कोई सिंगर तो कोई उसी की तरह के मोर्डल!


    पर ऐमिली ने उनके साथ बस कुछ ही सेकेंड्स हाई - हेलो की और वो अपनी जगह पर जा कर बैठ गई, फंक्शन जारी था,


    उसी के बाजू वाली सीट पर एक मेल सुपर मोर्डल रयान आ कर वहां बैठा, जो उसे बेहद पसंद करता था और हमेशा ही उस के करीब आने की कोशिशें करता रहता था, यू तो रयान के लिए गर्लफ्रेंड्स की कमी नहीं थी मगर वो हमेशा कुछ अलग और एक्सपेंसिव की तलाश में रहता था,


    और ऐमिली भी ऐसी ही थी।


    "हाई ऐमिली...!" रयान ने कहा।


    ऐमिली कहना तो कुछ भी नहीं चाहती थी पर..."हाई!"


    "मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूं.." रयान बोला।


    "थेंक्स!" ऐमिली स्टेज पर चल रहे प्रोग्राम को देखते हुए बोली।


    "वैसे तुम मुझे शायद पसंद नहीं करतीं..." रयान ने यूंही कहा।


    ऐमिली ने रयान की तरफ देखा और फिर से सामने देखने लगी।


    "पर..पर..मैं..पर मैं तुम्हे..." रयान आगे कुछ कहता इस से पहले ही ऐमिली को स्टेज पर आने को कहा गया, और जब ऐमिली स्टेज पर पहुँची तो सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा, ऐमिली मुस्कुराई..


    एक यंग वुमन ने उसे एक ट्रॉफी दी और साथ ही कुछ कहने के लिए माइक भी...


    ऐमिली यू तो कहना कुछ भी नहीं चाहती थी, पर दूसरे  नजरिये से देखें तो बहुत कुछ...


    उसने माइक को अपने होठों के पास रखा, "गुड इवनिंग आल! ये ट्रॉफी, मेरी मेहनत से ज्यादा आप सब के प्यार की वजह से मेरे इन हाथों में हैं, मैं आप सबकी आभारी हूँ..लव यू!" कहते हुए उसे ऐसा लगा जैसे आज उसने किसी के लिए अपने दिल में बसा हुआ प्यार जाहिर किया हो, ये पहली बार था, जब उसे ऐसी फाइलिंग आयी, उसका चेहरा अब सच मुच खिला हुआ लग रहा था।


    लग रहा था बरसो से भीतर दबा हुआ कुछ आज बाहर निकल आया हो,


    अवॉर्ड मिलने के बाद रयान ने उसे प्रपोज करने की काफी कोशिशें की पर वो नहीं कर पाया!


    "क्या हुआ रयान! निकल गई न हवा, ये लड़की हाथ आने वाली नहीं है भाई! इस के पीछे पड़ने का मतलब है हवा को मुठ्ठी में भरने की बेवकूफी करना!" वाइन का गिलास लिये रयान का एक दोस्त अपने कुछ दोस्तों के साथ रयान के पास आ कर उसे चिढ़ाते हुए बोला।


    "हां! रयान..ये लड़की तो लड़कियों से भी ऐसे भागती है, जैसे उनमें कांटे लगे हों, मुझे तो समझ नहीं आता! ये आखिर बिना दोस्तो के जीती कैसे हैं..." साउथ की एक लड़की ने कह कर शराब को होठों से लगाया।


    "हेलिना, जोज! पता नहीं मैं ऐसा क्यों हूँ, मैं खुद भी उस को इग्नोर करना चाहता हूं पर ये दिल है कि..हार ही नहीं मानना चाहता!" रयान बेहद परेशानी के साथ बोला।


    "ये भी तो हो सकता है कि उसका कोई दूसरा बॉयफ्रेंड हो.." हेलिना ने संभावना जताई,


    "ओह्ह प्लीज हेलिना! अगर ऐमिली का कोई भी बॉयफ्रेंड होता तो मीडिया वाले उसका पता लगा लेते.." जोज ने कहा।


    "गाइस..! आज मैं सब कुछ क्लीयर कर लेना चाहता हूं, मैं ऐमिली को आज ही प्रपोज कर के रहूंगा।" रयान ने जैसे ठान लिया था, इसके बाद उसने सीधा अपनी कार निकाली और ऐमिली के घर की ओर बढ़ गया।


    ऐमिली अवॉर्ड पाने के कुछ देर बाद ही अपने घर निकल गई थी, लेकिन रास्ते में मौसम एक दम बदलने लगा था, तेज तूफानी हवाएं बारिश के आने का इशारा कर रहीं थीं, यूं तो ऐमिली को भी बारिश का मौसम पसंद था लेकिन वो बारिश शुरू होने से पहले ही घर पहुँचना चाहती थी, वो नहीं चाहती थी कि उसे रास्ते में कोई ऐसा मिले जो बारिश की वजह से उस से लिफ्ट मांगे, क्योकि उस के साथ ऐसा क़ई बार हो चुका है..


    पर वो कभी किसी को चाहते हुए भी लिफ्ट नहीं दे पाई, जब भी कोई उस से लिफ्ट मांगता वो कार की स्पीड और भी तेज कर लेती, जिसके बाद में उसे बेहद पछतावा होता।


    कुछ ही वक़्त में ऐमिली अपने घर पहुच गई थी, हल्की थकान के कारण आंखों को घेरती नींद के आगोश में पूरी तरह समा जाने के लिए, ऐमिली ने सीधा बेडरूम का रास्ता पकड़ा, वो सीढ़िया चढ़ ही रही थी कि उसे डोरबेल की आवाज सुनाई दी, ऐमिली का चेहरा हैरानी से सफेद पड़ गया।


    उसने तो आज तक अपने घर में किसी को घुसने भी नहीं दिया, फिर ये कौन था जो इतनी रात में डोरबेल बजा रहा था..??


    "क्या करूँ मैं...दरवाजा खोलूं या नहीं??"


    ऐमिली सोच ही रही थी, पर अचानक डोरबेल की आवाजें लगातार सुनाई देने लगीं।


    "एक काम करती हूं, देख लेती हूं कि कौन है..फिर किसी बहाने से बाहर से ही बाय बोल दूंगी.." ऐमिली ने फैसला किया, लेकिन अभी भी वो श्योर नहीं थी, उसके कदम दरवाजे की ओर बढ़ते हुए कांप से रहे थे।


    "खट खट! खट खट खट खट खत...!" लग रहा था आगंतुक दरवाजा तोड़ कर ही दम लेगा।


    ऐमिली ने हिम्मत जुटाते हुए कदम तेजी से बढ़ाये और एक गहरी सांस छोड़ते हुए उसने दरवाजा खोला, दरवाजा खोलते ही उसकी आंखें फट पड़ीं,


    "तू..तू..तुम????" ऐमिली हकलाई।


    "ऐ..में..ऐमे...ली...., वो..वो एक्चुअली! बारिश..बारिश की वजह से मेरी कार रास्ते में ही खराब हो गई, इसलिए मुझे तुम्हारे घर तक पैदल...पैदल..ही आना पड़ा!" सामने खड़ा रयान बुरी तरह भीगा हुआ था, उसके कपड़े निचुड़ रहे थे, और वो ठंड से कांप रहा था, उसकी नाक एक दम लाल हो गई थी।


    "बट..तुम इतने जल्दी मेरे घर कैसे पहुँचे??? कार खराब होते ही, और मेरे घर का एड्रेस..??" ऐमिली की आंखें रयान को नीचे से ऊपर तक हैरानी से निहार रहीं थीं।


    रयान जरा झेंपा, "अब क्या..क्या..सारे सवाल..दरवाजे पर ही...पू...पूछ.. लोगी.. ऐमिली??? मुझे..मुझे..बहुत ठंड लग..रह..रही है..अंदर..चल..कर..बात..करें???" कांपती जुबान से बोला।


    "नो..." कहते हुए ऐमिली की आंखें डर के मारे बाहर को आ रहीं थीं।


    रयान चौका...


    "वो..वो..मेरा मतलब ये है कि..तुम्हे तो इस वक़्त अपने घर जाना चाहिए न! वहां जा कर तुम अपने गीले कपड़े बदल सकते हो, यहां तो तुम्हे इन्ही कपड़ो में..बैठना पड़ेगा.." ऐमिली अपना स्वभिमान सम्भालते हुए बोली।


    रयान ने हल्की सी मुस्कुराहट और जरा से अफसोस के साथ सिर हिलाया और वो अपनी कपकपाहट के साथ बाहें सहलाते हुए अंधाधुन्ध ऐमिली के घर में घुस गया...


    "ये...ये..ये क्या किया तुमने???" ऐमिली की आवाज में किसी खौफ की दस्तख भी थी।


    रयान को जैसे उसकी किसी बात का कोई फर्क ही नहीं पड़ा, वो अंदर घुसा और एक कमरे में चला गया,


    ऐमिली का चेहरा पसीना - पसीना हो गया था,


    "ओ गॉड..अब..अब..क्या होगा??" अपने बालों को खिंचते हुए वो बोली।


    "हे ऐमिली..." रयान ने हल्का सा दरवाजा खोला और ऐमिली को पुकारा।


    ऐमिली की नजर उसकी ओर दौड़ी,


    "प्लीज, मुझे एक टोविल दे सकती हो..??" रयान ने मुस्कुरा कर कहा।


    "नो...नो रयान...प्लीज..." कहते हुए ऐमिली रयान की ओर भागी, शायद वो चाहती थी कि वो रयान को अब भी घर से बाहर फेंक सकती है, मगर रयान ने तुरंत दरवाजे बंद कर लिए।


    ऐमिली थक कर सोफे पर बैठ गई,


    "न जाने क्या होने वाला है??" ऐमिली मन में ही बुदबुदाई, उसका चेहरा परेशानियों से लबालब था।


    करीब दस मिनट बाद रयान बाहर आया, उस ने कमर से एक चादर लपेटी हुई थी, अब वो बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे वो नहा कर बाहर आया हो।


    "क्या यार ऐमिली! तुम्हे तो अपने गेस्ट्स का वेलकम करना भी नहीं आता।" रयान ने मुश्कुराते हुए कहा और उसके सामने जा कर बैठ गया।


    ऐमिली ने गुस्से से उस की तरफ देखा।


    "अरे..अरे...तुम..तुम तो मुझे ऐसे देख रही हो जैसे मैंने किसी का मर्डर कर दिया हो?? मैं पूरी तरह गीला था, कांप रहा था मैं! अगर इस हालत में मैं अपने घर लौटता तो शायद आज ही मेरी डेथ सेरेमनी मना ली जाती.." कह कर रयान हँसा, और शायद वो ये भी चाह रहा था कि ऐमिली भी उसकी बात पर हँसे, लेकिन ऐमिली तो गुस्से से लाल-पीली नजर आ रही थी।


    "मैं जान सकती हूं कि तुम मेरे घर क्यों आये?? क्या जरूरत थी तुम्हे यहां आने की???" ये आवाज शायद पहली बार ही रयान ने ऐमिली की सुनी थी, उस ने आज से पहले ऐमिली को इतने गुस्से में कभी नहीं देखा था।


    रयान ने ऐमिली के गुस्से और पूछे गए सवाल को पूरी तरह से इग्नोर कर दिया, हाँ! इसके पहले वो जरूर सीरियस हुआ था,


    "ऐमिली! एक हॉट कॉफी मिल जाती तो..." रयान ने जैसे रिक्वेस्ट की।


    "ओ.....सेड अप.....!!!!" ऐमिली अपनी जगह से उठ कर तेजी से खड़ी हो कर दहाड़ी! "मैं तुमसे कुछ पूछ रहीं हूँ, उसका जबाब क्यों नहीं देते??? मैं तुम्हे पागल लगती हूँ क्या?? जो लगातार मुझे इग्नोर कर रहे हो...." ऐमिली का ये गुस्सा देख कर रयान सोफे से सट गया, वो उसे बेहद हैरानी से देख रहा था।


    "तुम...तुम तो..तुम तो...काफी ज्यादा पैनिक हो रही हो ऐमिली, क्या..क्या मैं एक दोस्त होने के नाते.., तुम से..तुम से मिलने नहीं आ सकता था???" हकलाते हुए रयान ने कहा।


    "नहीं...बिल्कुल भी नहीं आ सकते थे तुम??? क्योकि तुम मेरे दोस्त नहीं हो, तुम तो क्या....कोई भी इस दुनिया में मेरा दोस्त नहीं है....., मैं तुमसे रिक्वेस्ट करती हूं, इसी वक्त यहां से निकल जाओ वरना..." गुस्से से आगबबूला ऐमिली की आंखें कब नम और आवाज कब नरम हो गई ये समझ ही नहीं आया।


    पर रयान ऐमिली की हालत अच्छी तरह समझ रहा था, वो समझ रहा था कि जरूर ऐमिली की कोई मजबूरी है, वरना वो किसी के साथ भी ऐसे पेश नहीं आती जैसे उसके साथ आ ही है।


    ऐमिली के हाथ रयान के सामने जुड़े हुए थे और उसकी आंखें बंद थी, चेहरा उदासी और लाचारी से भरा हुआ था।


    रयान ने अपनी पीठ सीधी की और खड़ा हुआ, उसने ऐमिली की जुड़ी हुई हथेलियों को प्यार से अपनी अंजलियो में भरा और उसे सोफे पर बैठा कर उसके सिर को सहलाने लगा,


    "प्लीज चले जाओ रयान!" ऐमिली ने लगभग रोते हुए कहा।


    "चला जाऊंगा ऐमिली, मैं अभी चला जाऊंगा, लेकिन! क्या तुम प्लीज मुझे एक बात बताओगी?? प्लीज..." रयान ने विनती भरे सवार में पूछा।


    ऐमिली ने रयान की आंखों में देखा,


    "ऐमिली! मैं जानता हूँ कि तुम्हारी कोई फेमिली नहीं है, कोई दोस्त नहीं है, और तुम...हमेशा ही अकेली नजर आती हो?? सच कहूं तो मैं तुम से शादी करना चाहता हूं, तुम्हे एक फेमिली देना चाहता हूं और एक ऐसी जिंदगी देना चाहता हूं जो हर इक इंसान की होती है, जिसमें सिर्फ उदासी नहीं, बल्कि..उदासी और खुशी दोनों ही वक़्त वक़्त पर रहती हैं,


    मैं तुम्हे फोर्स नहीं कर रहा हूँ, न ही तुम से कुछ एक्सपेक्ट! लेकिन मैं तुम्हारी उदासी की वजह जानना चाहता हूं??


    क्या तुम्हें किसी ने धोखा दिया है, जिसके कारण तुम अब तक अपसेट रहती हो, या फिर..या फिर कोई और रीजन है..???


    मैं आशा करता हूँ कि तुम मुझे सच बताओगी!"  अपनी बात बड़े ही नरम अंदाज में कह कर रयान चुप हो गया।


    ऐमिली ने पलके झपकाई,


    "रयान..., मैं जानती हूं कि जब तक तुम सच नहीं जानोगे, तुम मेरे करीब आने की कोशिशें करते रहोगे, इसलिए जो बात मैंने आज तक किसी से नहीं कही वो तुम से कह रही हूं, लेकिन वादा चाहती हूं कि तुम...कि तुम ये बात किसी को नहीं बताओगे!" ऐमिली ने रयान के हाथों को अपनी हथेलियों में भरा।


    रयान बेहद गंभीर था,


    "रयान! मेरे मॉम डेड किसी कार एक्सीडेंट में नहीं मारे गए थे, बल्कि....बल्कि उन दोनों को एक सुपर पावर ने मारा था!" कहते हुए ऐमिली की आंखें और गला भर आया।


    "सुपर पावर...??" रयान ने कन्फ्यूजन के साथ कहा।


    "हाँ.. एक सुपर पावर! जो आज भी है...," ऐमिली ने कहा।


    "पर..पर ऐसा हुआ क्या था?? इसकी कोई वजह तो रही होगी न!" रयान ने इंटरेस्ट लेते हुए कहा।


    "हम्म...वजह थी, मेरे डेड..मेरे डेड न तो गॉड पर विश्वास रखते थे और न ही किसी बुरी शक्ति पर,


    वो सिर्फ साइंस को ही मानते थे, और भगवान और शैतान का मजाक उड़ाना तो जैसे उनकी हॉबी थी, पर मेरी मॉम ऐसी बिल्कुल भी नहीं थीं, उन्हें परमात्मा और बुरी आत्माओं पर विश्वास था,


    मॉम हमेशा डेड को समझातीं थीं कि वो किसी का भी मजाक न उड़ाए, अगर विश्वास नहीं तो न सही पर..मजाक!


    लेकिन डेड, उनकी बात कभी नहीं माने,


    और फिर एक दिन..." ऐमिली अपनी कहानी सुनाती जा रही थी, और रयान बड़े ध्यान से उसकी कहानी सुन भी रहा था, मगर वो बार - बार किसी चीज से डिस्टर्ब हो रहा था, कभी वो सामने वाले कमरे की लाइट बुझता देखता तो कभी अचानक ही उसका जल जाना और फिर एक पल में बुझ जाना,


    कभी उसे किचन से बर्तनों के गिरने पड़ने की आवाजें सुनाई देतीं तो कभी ऐसा लगता जैसे किसी ने पीछे से उसके कंधों पर हाथ रखा है,


    लेकिन शायद ऐमिली ये सब बिल्कुल महसूस नहीं कर पा रही थी,  वो अपनी कहानी पूरी ईमानदारी से सुनाए जा रही थी, उसकी नजरे रयान पर नहीं थी।


    "एक दिन मेरे डेड, मेरी मॉम को, उनकी वेडिंग एनिवर्सरी पर कहीं घुमाने गये, पर मुझे मेरी  नानी जी के पास ही छोड़ गए..और.. और वो ही दिन! वो ही दिन मेरे मॉम डेड को मुझ से कहीं दूर ले गया!"कहते हुए ऐमिली अपने आप को रोक नहीं आयी और वो फबक फबक कर रोने लगी।


    रयान ने उसे गले लगाया और सहलाते हुए बोला - "प्लीज ऐमिली! रिलेक्स..."


    रयान ने कहा ही कि तभी उसने महसूस किया, कोई उसकी आँखों के सामने से हवा की तरह निकला..उसने उसे भी वहम समझ कर इग्नोर कर दिया।


    "एक मिनिट...मैं तुम्हारे लिए पानी ले कर आता हूँ..." रयान ने ऐमिली के आंसू पोछते हुए कहा और खड़ा होने लगा,


    "नो..नो रयान! तुम..तुम..यही रहो!" ऐमिली ने कुछ सोचते हुए उसे दोबारा बैठा लिया,


    "तुम जानते हो, मेरे डेड मेरी मॉम को उस रात कहाँ ले गए थे घुमाने के लिए???" ऐमिली ने गहराई में जाते हुए कहा।


    रयान ने न में एक दम धीरे से सिर हिला दिया,


    "वो इंडिया का सब से डरावना श्मशान माना जाता था, वहां सिर्फ लोग दोपहर में ही जा सकते थे, पर रात में, रात में वहां जाने का मतलब था...एक ख़ौफ़नाक मौत!" कहते कहते ऐमिली के चेहरे पर पसीने की बूंदे उभरने लगीं।


    "इंडिया मतलब?? तुम्हारे डेड तुम्हारी मॉम को पेरिस से इंडिया ले गए थे, वो भी सिर्फ एक कब्रिस्तान दिखाने के लिए???" रयान ने कहते हुए खिल्ली उड़ाई,


    "सिर्फ कब्रिस्तान कहने की भूल मत करो रयान उसे..?? उस ने मेरे मॉम - डेड को निगला है..और मेरी पूरी लाइफ को भी!" कहते हुए ऐमिली जैसे तड़फ उठी!


    "ओह.. ओ सॉरी...पर इंडिया???" रयान ने खींचा।


    "तब हम इंडिया में ही रहते थे, पेरिस में नहीं! पेरिस तो मुझे मेरी नानी ले कर आयीं थीं, क्योकि..क्योकि मेरे मॉम डेड को खा जाने के बाद उस..उस औरत की आत्मा मुझे...मुझे भी..." कहते कहते ऐमिली की सांस फूलने लगी,


    "लगता है तुम काफी डरी हुई हो, तुम्हे पानी की जरूरत है ऐमिली, मैं आता हूँ रुको तुम!" रयान ने कहा और उठने लगा,


    पर इस बार भी ऐमिली ने उसे रोक लिया, लग रहा था वो उसे किचन में जाने ही नहीं देना चाहती,


    "तुम..तुम मुझे बार बार रोक क्यों रही हो ऐमिली! तुम्हे पानी की जरूरत है, कहीं तुम बेहोश हो गई तो..." रयान चिंता जताते हुए बोला।


    "प्लीज तुम मेरी चिंता मत करो रयान! तुम मेरी पूरी बात जल्द से जल्द सुन लो और निकल जाओ यहां से, ये जगह तुम्हारे लिए इस वक़्त बिल्कुल भी सेफ नहीं है, खास कर मेरे साथ..." ऐमिली ने कहा।


    "ओके..ओके..! बोलो.." रयान ने खुदको रिलेक्स दिखाया।


    "देखो रयान! उस कब्रिस्तान में क्या हुआ, ये तो कोई नहीं जानता..लेकिन जब मेरे मॉम डेड की लाशें वहां मिली और उनका पोस्टमार्टम हुआ तो रिपोर्ट में ये आया कि वो एक सामान्य मौत से मरे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है तुम ही बताओ..सिर्फ मेरे मॉम डेड ही नहीं बल्कि, कईं लोग वहां मरे हैं और उनकी रिपोर्ट्स में भी यही था!


    कहाँ जाता है कि उस कब्रिस्तान में, एक औरत को उसकी अपनी ही फेमिली ने जिंन्दा जला दिया था, क्योकि वो एक आदमी से प्यार करती थी और जिस वक्त ये सब हुआ उस वक़्त प्यार-मोहोब्बत जैसी चीजों को अपराध माना जाता था, उनकी बदनामी न हो इसलिए उन्होंने कबिस्तान में उस औरत को..." ऐमिली ने कहा।


    "तुम मेरी बात सुन तो रहे हो न रयान! मैं काफी देर से देख रही हूं तुम्हारा ध्यान मेरी बातों पर नहीं बल्कि कहीं और ही है..." रयान को यहां वहां देखते हुए ऐमिली रुक गई और फिर उसने अपने दिल की बात पूछी।


    "नहीं...मैं..मैं तुम्हे ही सुन रहा हूँ," रयान ने यकीन दिलाते हुए कहा।


    ऐमिली ने एक बार यहां वहां देखा और तसल्ली कर लेने के बाद बोली,


    "इसलिए रयान! उस कब्रिस्तान में रात के वक़्त जाने वाले लोग ही नहीं बल्कि उस इंसान का पूरा परिवार मारा जाता था, और ये बात मेरी नानी बखूबी जानती थीं, इसलिए वो मेरे मॉम डेड के मरने के बाद मुझे पेरिस ले आयी, लेकिन वो भी मुझे छोड़ कर जल्द ही गुजर गईं..." ऐमिली एक बार फिर निराश हो गई,


    "अब मेरी बारी है रयान.., तुम जानते हो, मेरी नानी ने मेरे हाथ में एक धागा बांधा था, जिसकी वजह से मैं आज तक जिंदा हूँ, बस उसे हर साल फादर से पवित्र करवाना होता है, लेकिन एक बहुत बड़ी समस्या है, इस धागे को उतारने पर वो चुड़ैल मुझे मार देगी, और अगर इस धागे को पहने रखने के साथ मैंने किसी से कोई भी रिश्ता बनाया, दोस्त का, बहिन का, पति का या कोई भी..तो ये धागा खंडित हो जाएगा, इसकी सारी पावर्स खत्म हो जायेंगी।" कहते हुए एमिला का चेहरा सख्त हो गया,


    कुछ देर के मातम सा पसर गया,


    और अचानक ही उस सन्नाटे को चीरती हुई एक जोरदार ठहाका गूंज उठा,


    ऐमिली रयान को इस तरह हँसते देख बुरी तरह हैरान थी।


    "तुम..तुम..तुम हँस रहे हो रयान..." ऐमिली ने कहा।


    "तो.....तो और क्या करूं?? क्या करूँ और ऐमिली! तुम एक मॉडर्न हो कर इन सब बातों पर विश्वास रखती हो???" हँसते हुए रयान बोला, वो हँस हँस कर इतना पागल हो गया था कि उसकी आँखों में पानी झलकने लगा था।


    "तुम्हे ये सब फालतू लगता है न! फालतू लगता है न तुम्हे??? तो ठीक है..., इसी वक्त मुझे एक किस करो और अपनी वाइफ बना लो..और जब हम दोनों मर जाये और हमारे बाद तुम्हारी सारी फेमिली तब, तब तुम यकीन कर लेना, मरने के बाद यकीन कर लेना तुम..." ऐमिली गुस्से से आगबबूला होते हुए बोली, और सोफे पर धड़ाम से बैठी,


    वो काफी टेंशन में थी,


    रयान ने उसे सॉरी बोला, और इस के बाद उसे किस करने की कोशिश करने लगा, पर तभी ऐमिली ने उसे धकेल दिया,


    "निकल जाओ यहां से रयान! तुम्हे यकीन नहीं है पर मुझे है यकीन, मेरी नानी ने कभी मुझ से कोई भी झूठ नहीं बोला है, मैं मरने से नहीं डरती! आखिर मैं क्यों डरूँ, मगर मैं उस भूतनी को हमेशा के लिए खत्म करना चाहती हूं, मैं उस से बदला लेना चाहती हूं अपने मॉम डेड की मौत का, और उन लोगो को बचाना चाहती हूं जो निर्दोष हैं, जो गलतीं से या मर्जी से उस कबिस्तान में रात के वक़्त चले जाते हैं..., और फिर रयान! अगर तुमने मुझसे कोई भी रिश्ता बना लिया न तो, तो मेरे साथ साथ तुम और तुम्हारी पूरी फैमिली भी मारी जाएगी, मैं जानती हूं कि तुम्हारी बहुत बड़ी और खुशहाल फेमिली है,, कम से कम उन के लिए मेरी बात मान लो, चले जाओ यहां से!" अपनी बात पूरी करते करते ऐमिली के हाथ एक बार फिर रयान के सामने जुड़ गए।


    "ओके..ओके..ऐमिली, रिलेक्स!" कहते हुए रयान विश्वास जताते हुए एमिली के एक दम नजदीक आ कर दोनों हाथों से उसके बाल सहलाने लगा, ऐमिली उस के हाथों को हटाने ही जा रही थी कि तभी......


    रयान ने ऐमिली के होठों को चूम लिया, "योर माय वाइफ!" रयान ने मुस्कुरा कर कहा,


    ऐमिली का चेहरा सफेद पड़ गया, कुछ देर व्व उसे यूंही देखती रही और एक पल्क बाद उसने रयान के लाल पर एक जोरदार झांपड रसीद कर दिया।


    मगर रयान कुछ कर पाता या कह पाता उसके पहले ही सारे घर की लाइट्स बिगड़ने लगी, दरवाजे और खिड़कियां हवा के तेज थपेड़ों से आपस में टकराने लगीं,


    और माहौल में एक अजीब सी आवाज गूंजी...."कजरी..! कजरी..कजरी..किसी को नहीं छोड़ेगी!" ये आवाज बेहद बारीक और खामोश सी थी, जिसका तीखापन, इस वक़्त रयान और ऐमिली की धड़कने भारी कर रहे थे,


    "कौन..कौन है यहां पर..?? मैं..जानता हूँ, ये मेरे साथ कोई मजाक है..?? बहुत देर से महसूस कर रहा हूँ मैं तुम्हारी ये हरकते!


    मेरा नाम रयान है, मैं मजाक को एक हद तक ही बर्दास्त करता हूँ समझे तुम??? मैं कहता हूं सामने आये जो भी है...वरना..." रयान हवा में चेतावनी देते हुए बोला, वो काफी गुस्से में भी लग रहा था।


    तभी कुछ ऐसा हुआ कि ऐमिली की भयानक चींख निकली,


    रयान के गले में बड़े बड़े नाखूनों के घुसने जैसे निशान बनने लगे, और उसकी गर्दन से जैसे खून की नदियां बह निकली, रयान की आंखें फट पड़ी..हाथों से जैसे जान सी छूटने लगी, एक वक्त में रयान का शरीर जमीन पर धड़ाम से गिरा, उसके हाथ पैर फड़फड़ाते फड़फड़ाते आहिस्ता आहिस्ता शांत हो गए, उसकी गर्दन एक ओर को झूल गई, पर उसकी आंखें फटी की फटी ही रहीं।


    रयान मर चुका था,


    और अब बारी थी ऐमिली की, जो अपनी जिंदगी में कामयाबी पा कर भी अपनी जिंदगी को हँसते-मुश्कुराते हुए नहीं जी पायी थी, जो मौत आज उसे गले लगाने आयी थी, इसी मौत ने दूर रहते हुए भी किसी लाश सा बना रखा था, इसी डर ने उसे अपनी खूबसूरत जिंदगी से दूर रखा।


    "कजरी...कजरी..कजरी..किसी को नहीं छोड़ेगी!" एक बार फिर एक भयानक और पतली आवाज सरसराती हुई ऐमिली के कानों से टकराई, लेकिन...


    ऐमिली का दिल अचानक से रुक गया, उसका हाथ उसकी छाती पर गया और उसे बहुत जोर से उसे थामा, मगर..


    वो इस डरावने हादसे को बर्दाश्त नहीं कर पाई और उसे एक ही हार्ट अटैक ने निगल लिया,


    उसकी खूबसूरत देह भी धरती पर बिछ गई,


    कभी बुझती और कभी जलती लाइट, अचानक से पूरी तरह बुझ गई।


    सूना घर, फिर से सूना और खामोश हो गया!


    "कटेट..कटेट! वेरी...वेरी इमोशन सीन...ओ माय गॉड.." लाइट्स जल उठीं, ऐमिली उठ कर खड़ी हुई और साथ ही रयान भी,


    "माय गॉड! मैं तो थक गई डायरेक्टर साहब, ये स्टोरी किस बेबकुफ़ राइटर से लिखवा कर लाये हैं आप!" ऐमिली जा कर एक चेयर पर बैठी और उसने कॉक मुँह से अड़ाया, एक लड़की उसके  आ कर उसके पसीने को एक सॉफ्ट कपड़े से पोछने लगी।


    "सच कह रही है तान्या! मेरी तो महसूस करने की एक्टिंग में ही गर्दन टूटने लगी।" रयान भी जा कर एक चेयर पर बैठ गया, और अपनी गर्दन को लेफ्ट राइट करने लगा।


    ये एक शूटिंग का सूट था, कहाँ सूट खत्म होते ही सभी लोग पेरिस की काल्पनिक दुनिया से निकल कर अपने भारत में वापस आ गए थे, कोई कैमेरा हताल रहा था तो कोई सोफे आदि!


    "ये फ़िल्म जब रिलीज होगी न तान्या मैडम और अजय सर! तो लोग...आप लोगो की तारीफों में लेटर्स के साथ साथ गिफ्ट्स और गुलदस्तों की भी भीड़ लगजे देंगे।" डायरेक्टर ने मुश्कुराते हुए कहा।


    तभी डायरेक्टर ने वही तीखी और डरावनी आवाज महसूस की, "कजरी..कजरी..कजरी किसी को नहीं छोड़ेगी!" डायरेक्टर के पसीने छूट गए और वो अपनी जगह परबर्फ सा जम गया।


    लेकिन तभी एक जोर दार हँसी गूंजी, और उसी के साथ साथ पूरा सेट भी हँसी से लबालब हो उठा,


    डायरेक्टर की पीठ के पीछे से ये आवाज कहानी की लेखिका साहिबा निकाल रही थीं।


    डायरेक्टर ने अपनी सीढ़िया चढ़ती साँसों को संभाला, और लगभग हांफते हुए बोले - "हमारी कहानी की हिरोइन को तो असलियत में हार्ट अटैक नहीं आया, पर..पर तुम मुझे जरूर हार्ट अटैक दिलवा देतीं।"


    समाप्त!


लेखिका - सुरभि गोली (मौलिक रचना)


सरंगा तेरी याद में!

"सारंगा तेरी याद में.." 


 खेत के बीचों बीच "भगवान काका" रोहित को मुकेश कुमार माथुर साहब के गीत "सारंगा तेरी याद में.." सुनाते हुए..इस गीत के मर्म को समझाने की कोशिश कर रहे थे। रोहित भी कान लगाए बड़े प्रेम से भगवान काका की बातों में उलझा हुआ था। लग रहा था सरसो की फसल भी काका की बातों में खोयी हुई है, मानो पीले रंग की साड़ी में कोई सुंदर स्त्री किसी की प्रेम भरी बातों में रमी है। "मैं और तुम्हारी काकी बिल्कुल अमिताभ और जया जैसे थे! वह छोटी सी मैं बांस की तरह.." काका की बात सुन कर रोहित खिलखिला कर हँस पड़ा..."क्या क्या..बांस जैसे..हेहेहे!" "हां! और क्या..??" "बड़ी याद आती होगी न काका! काकी की? तुमको चूल्हा फूंकना पड़ता है अब..और दसों काम घर के, बाप रे बाप मेरी अम्मा तो ननिहाल एक दिन के लिए भी जाती है, तो मेरे बापू को नानी याद आ जाती है।" रोहित की बात सुनकर काका हँस पड़े। और खड़े होकर अपनी नन्ही सी गाय हांकते हुए अपने घर की ओर बढ़ गए। .....*


 सन 1960, आज से 60 साल पहले..जिला बीना मध्यप्रदेश में सबसे धनी किसान जगन्नाथदास के बेटे भगवान सिंह के जन्मदिन की खुशी में दावत रखी गयी थी। जगन्नाथदास का घर बहुत बड़े क्षेत्र में बना हुआ था। दीवारों पर लगी खूटियों पर लालटेनें लटक रहीं थी। शायद गांव की बिजली चली गई थी। आँगन में 8, 10 बड़ी बड़ी खाट बिछा दी गई थीं। घर के पिछवाड़े में 20 भैंसे भूसे के मजे ले रहीं थी और उन्ही के एक बदल बंधी हुई 10 गायें जुगाली करने में व्यस्त थीं। दर्जन भर बकरियां मिमियाने लगी थीं। आम और नीम के पेड़ भी भगवान सिंह के जन्मदिन की खुशी में झूम रहे थे। बेचारे झींगुरों ने अपने को कोई कब्बाल समझ लिया था..मगर किसी के कानों को उनकी कब्बलिया नहीं भायीं। धीरे-धीरे गांव के बड़े बूढ़े और भगवानसिंह के यार दोस्त खाट पर पसरते जा रहे थे। सबकी नियत एक मिट्टी और ईंटो की बनी भट्टी पर पक रहे हलुए पर थी। भगवानसिंह के बड़े काका और बड़े काका का चौथा लड़का लोहे की बड़ी कड़ाई में खूब बड़ी चम्मच से हलुआ पकाने लगे थे। बुजुर्ग औरतें और भगवानसिंह की मां की उम्र की स्त्रियां सिर से गले की माला तक घूँघट किये हुए झुके सर के साथ घर के भीतर घुसी जा रहीं थी। बच्चों का चुलबुलापन और बुजुर्गों की समझदारी भरी बातें वातावरण में फैली हुई थीं। रात के 8 बजने को थे। भगवान सिंह अपने दादा और उनके दोस्तों के पास बैठा हुआ रेडियो पर प्रसारित होने वाले "गीतों का काफिला" प्रोग्राम का इंतजार कर रहा था। अपने दादा से भगवान सिंह की दोस्ती बिजली के दो भिन्न आवेशों वाले तारों की तरह थी, दादा के बिन भगवान सिंह की खुशियो का बल्ब नहीं जलता था और भगवान सिंह के बिना उसके दादा के जीवन की बत्ती नहीं जलती थी। अपने दादा के साथ ही भगवान सिंह ने जीवन के अच्छे और बुरे अनुभव जाने थे। "तितली को बंद मुट्ठी में नहीं तितली को खुले आकाश में उड़ते देखना ही निश्छल आंखों की पहचान है.., फूलों के इत्र को कपड़ो में छिड़क कर नहीं, फूलों की महक को हवाओं में महसूस करना ही निष्पाप सांसों का धर्म है। कंचन आंखों में होता है, कंचन कोई धातु नहीं हमारी दृष्टि है।" इन्ही सब बातों से प्रेरित भगवान अपनी मां से लेकर गांव की सभी स्त्रियों का सम्मान और कीट से लेकर हाथी तक की भावनाओ की कद्र करता था। सोने और चांदी से उसका नाता धरती और आकाश की तरह ही था। उसके लिए जीवन का अर्थ सभी की भावनाओ का सम्मान करना और अपने कर्म के प्रति सजग रहना था। "कितना मजा आएगा न! दद्दू! जब गीत होंगे और मेरे जन्मदिन की दावत! अब बस 5 ही मिनट रह गए हैं..8 बजने में। खाना भी तैयार हो गया है..चिटाइयाँ भी बिछा दी गईं हैं..बस अब सब अपनी अपनी जगह ले ले! फिर सब जन गीतों को सुनते हुए दावत का आनंद लेंगे।" "भगवान जा तेरी अम्मा तुझे बुला रही है..जरा उनकी सुन ले फिर अपने रेडियो में घुस जाना।" एक पतला दुबला लड़का जिसकी लंबाई लगभग 6 फुट होगी, भगवान सिंह के सामने पत्तलें लिए खड़ा कहता है। भगवान सिंह की अम्मा 50 रुपये का नोट भगवान सिंह पर न्योछावर करते हुए उसके ललाट पर चुम्बन कर देती है और उसे लंबी आयु का आशीर्वाद देती हुई अपने हाथों से हलवे का एक निवाला उसके मुंह मे रख देती है। "अम्मा! इतना प्रेम क्यों लुटाती हो मुझ पर। मुझे रोना आता है।" भगवान सिंह अपनी मां से लिपट जाता है। "अरे! कैसी बातें जानने लगा है रे तूँ! लगता है इसका बियाह करना पड़ेगा अब..क्यों मंझली?" भगवान की मां उसको अपने सीने से लगाये हुए, पुड़िया निकलती हुई एक औरत से कहती है। रेडियो पर प्रोग्राम शुरू हो चुका है। प्रोग्राम का पहला गीत..."दिल का खिलौना हाय! टूट गया..." अम्मा मैं जाता हूँ दद्दू के साथ खाना खाऊंगा। तुम भी खा लो। "क्या हुआ दद्दू आप खाना क्यों नहीं खाते?" भगवानसिंह अपने दादा को शांत बैठे हुए देख कर कहता है। "बेटा इन गीतों से तेरी दादी की याद आ जाती है। तुझे पता है आज से 5 साल पहले जब तूँ 10 साल का था, तब आज ही के दिन  तबियत ठीक न होने के कारण वो हमसब से हमेशा के लिए दूर चली गईं थीं। लेकिन हां! वो तुझसे सबसे ज्यादा प्यार करती थी..सबसे ज्यादा और इसलिए उनके मर जाने पर भी तेरा जन्मदिन हमसबको मनाना पड़ा था। लोगो ने क़ई बातें बताई रीति रिवाज रस्में लेकिन तेरी दादी की इच्छा थी कि उसका प्यारा पोता कभी रोये न! इसलिए उस दुख की घड़ी में भी तेरा मुँह मीठा कराया था।" भगवानसिंह अपने दादा की बातें बड़े चित्त से सुन रहा था। वह अपने दादा की उदास आंखों में भी उसके जन्मदिन की खुशी का बड़ा सा हिस्सा देख रहा था। अपने दादा की आंखों में झांकते हुए उसने रेडियो को बंद कर दिया। रेडियो के बंद होने पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा था मगर "अरे! यह क्यों बंद कर दिया?" "दद्दू! जो चीजें तुम्हे तककीफ देतीं हैं उन्हें क्यों अपने साथ लिए घूमते हो। इस रेडियो से तुम्हारी कितनी यादें जुड़ी है..दादी के साथ वालीं और तुम उन्ही यादों में रोते हो। इसे बंद करके रख दो आज..मैं तुम्हारी आँखों मे यह आंसू नहीं देख सकता।" अपने दादा के सवाल का जवाब देते हुए भगवानसिंह कहता है। "अरे! नहीं रे पगले! इन्हीं गीतों ने तो मुझे अभी तक जिंदा रखा है..वरना मेरा क्या ही काम रह गया है इस दुनिया में। इक तूँ और दूसरा यह रेडियो। इन दोनों के बिना मेरा जीवन..कैसा जीवन?" ......*


 "अरे! ये..भगवान! ये क्या कर रहा है रे?" "कुछ न दद्दू! मेरा एक दोस्त है कालेज का उसके लिए पत्र लिख रहा हूँ।" "तो ये पर्ची ऐसे क्यों छुपा रहा है जैसे कोई प्रेम पत्र लिख रहा है।" "अरे! नहीं दद्दू! तुम भी क्या!" बोलते हुए भगवान के पसीने छूट रहे थे। "देख भई! मेरे दिन लगभग पूरे हो चुके हैं कब तुझे छोड़कर तेरी दादी के पास पहुँच जाऊँ कोई नहीं कह सकता? इसलिए शादी करा लें! और चिट्ठी किसे लिख रहा है सच सच बता दे।" घर के एक कमरे में भगवानसिंह और उसके दादा की बातें हो रहीं थीं।जहां एक खाट बिछी हुई थी और अलमारियों में 8-10 किताबे जमी थी। एक खूंटी पर भगवान और उसके दादा के कपड़े टंगे थे। "क्या दद्दू! कैसी बात करते हो! मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने देने वाला। और हाँ! ये चिट्ठी...." बहुत जोश में भरा हुआ भगवान अंतिम शब्द बोलता हुआ सहमा। "ये तेरी प्रेमिका की है??" अपने दादा के मुँह से यह बात सुनकर भगवान शर्म से नहा गया।

 

"प्रिय! साध्वी,                                                  16 फरवरी 1962 तुम्हारे बिना अब मन नहीं लगता है। जी चाहता है तुम्हें अपनी पीठ पर लाद कर अपने घर ले आऊं, और अम्मा से कहूं! ये लो तुम्हारी बेटी ले आया हूँ..हां! मगर ये मेरी पत्नी रहेंगी। सुनों, प्रिय! मैं तुमसे जितना प्रेम करता हूँ उतना ही अपनी अम्मा से भी। उनकी कोई बेटी नहीं है तो तुम सदा उनकी बेटी बनकर उनके साथ रहना। बस मेरे बापू और तुम्हारे बापू मान जाएं तो मेरी अम्मा को एक बेटी और मुझे मेरी प्यारी साध्वी मिल जायेगी। इस सोमवार को नहीं आ पाऊंगा, मगर अगले सोमवार को तुम्हारी राह जोहता हुआ तुम्हारा पागल प्रेमी भगवान..उसी नारंगी पलाश के पास मिलेगा। तुम्हारा दास.. भगवान" 


 अरे! वाह मेरे बेटे! पत्र तो बड़ा अच्छा लिखा है। यही दोस्ती का रिश्ता है हमारे बीच क्यों? अपनी मां के लिए बेटी ला रहा है और मुझे बताया तक नहीं।" पत्र को बंद करते हुए भगवान के दादा बोले। .....* 


 "हां! बाबू जी मैंने भी भगवान के बियाह के लिए लड़कियां देखनी शुरू कर दी है मगर उसके हिसाब की कोई नजर ही नहीं आती। अब वह पढा लिखा लड़का है और उसकी पसन्द भी तो हम जानते हैं उसे वो लड़कियां नहीं भायेगी जिन्हें मैंने देखा है।" भगवान के पिता, भगवान के दादा से कहतें हैं। "तो उसी से पूछ लें कोई लड़की पसंद हो उसे तो।" "क्या बाबू जी आप भी, आप क्या उसे जानते नहीं, वह कहां इन मामलों में.." "अरे! पूछने में क्या जाता है?" "ठीक है आज शाम को बात करता हूँ उससे" .....* 



 "क्यों भाई भगवान शादी करोगे?" भगवान के पिता जगन्नाथ दास ने भगवान के अंदर आते ही कहा। अचानक के सवाल से भगवानसिंह कुछ समझ नहीं पाया और हड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चला गया। दूसरे दिन जगन्नाथ और उसके पिता दोनों साध्वी के घर पहुँचे। जहां जाकर पता चला कि साध्वी के पिता जगन्नाथ के पक्के दुश्मन थे। दोनों की कभी नहीं जमती थी। और इसलिए साध्वी और भगवान का रिश्ता नहीं हो पाया था। भगवान के दादा ने जगन्नाथ को बहुत समझाने की कोशिशें की थीं मगर.... .....* 



 "सर! चाय!" एक चपरासी दफ्तर की एक बड़ी सी टेबल पर चाय रखते हुए बोला। "क्यों भाई.. श्याम..तुम्हारा रेडियो क्या बीमार है??" टेबल के पास रखी एक कुर्सी पर बैठे हुए एक नवजवान लड़के ने कुल्हड़ उठाते हुए कहा। "नहीं! साहब..आज हमारा मन नहीं है! रेडियो सुनने का।" "अरे! क्यों? ऐसा क्या हो गया?" "गाने सुनते है तो हमे हमारी प्रेमिका की याद आ जाती है बाबू!" "अरे! गीतों का यही तो मजा है..जो पास नहीं है उनको भी अपने पास महसूस करातें हैं!" "अच्छा चलो अब मैं चलता हूँ मुझे अपने गांव जाना है आज.." कुल्हड़ रखते हुए कुर्सी को पीछे खिसकता हुआ उठा। .....* 



 "बेटा! शादी कर ले अब, अब तो तूँ चाकरी वाला हो गया है। तेरी अम्मा को बेटी नहीं लाकर देगा क्या?" भगवान की मां शहर से लौटे हुए अपने बेटे को पानी पिलाते हुए बोली। "मां! तेरी बेटी, तुझसे मिलना चाहतीं है!" भगवान ने अपनी मां के कान में फुसफुसाते हुए कहा। "क्या..??" जोर से चिल्लाती हुई अपनी मां के मुँह पर हाथ रखता हुआ भगवान कहता है..."बापू को कुछ मत बोलना।" "मगर.." उसकी मां कुछ कहती उसके पहले ही उसके पिता जगन्नाथ दास आ गए। और उनकी मां चुप हो गई। ......* 



 आँगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठे भगवान के दादा रेडियो पर समाचार सुन रहे थे। तभी भगवान उनके पास जा कर बैठ गया। "और बेटा! साध्वी कैसी है??" दादा की बात सुनकर भगवान के होश फाख्ता हो गए थे। "दद्दू!" भगवान अपने दादा का मुँह आश्चर्य के ताकत हुआ बोला। दादा की आंखों में उदासी देख कर भगवान जैसे उनके मन की सारी बातें समझ गया था..उसने फिर कुछ न पूछते हुए कहना शुरू किया.."वो ठीक है दद्दू..मैं कितना बुरा हूँ न! आप मुझसे इतना प्यार करतें है और मैंने आपको ही कुछ नहीं बताया! लेकिन मैं बिल्कुल सच कहता हूं.. दद्दू मैं अभी आपके साथ साध्वी के बारे में ही बात करने आया था।" "मुझे पता है मेरे बच्चे! तभी तो मैं तुझसे नाराज नहीं हूं! लेकिन मैं एक बात समझ गया..तूँ मेरा दूसरा दोस्त है पहला दोस्त तो यह रेडियो ही है।" भगवान के दादा रेडियो को अपनी गोद मे रखते हुए कहते हैं। "हां! दद्दू... मैं आपसे कितना दूर चला गया हूँ! और आपको अपने साथ भी नहीं ले जा सकता। लेकिन मैं जैसे ही वहां अपना घर बनवा लूंगा..आपको साथ ले चलूंगा।" "हाँ! तूँ मुझसे दूर चला गया है...और मुझे अपने साथ कभी नहीं ले जा पायेगा। लेकिन तेरी यादें मेरे साथ हमेशा रहेंगी..और मैं तेरी यादें अपने साथ ले जाऊंगा।" "दद्दू! ऐसा मत कहो न!" 20 साल का नौकरी वाला लड़का बिल्कुल 5 साल के बच्चें की तरह अपने दादा के कंधे पर सिर टिकाता हुआ लगभग रोते हुए बोला। "मैं मां को 1 हफ्ते के लिए साथ ले जा रहा हूँ! मैं चाहता हूं आप भी चलें मेरे साथ शहर..." "लेकिन अभी तो तूँ कह रहा था नही ले जा सकता..??" "मैं हमेशा की बात कर रहा था दद्दू!" अपने पोते की यह बात सुनकर वृद्ध हँस पड़े। ......*


 रात बिल्कुल काली हो चली थी। आखिर रात भी अमावस्या की ही थी। पतली सी गली में तीन लोग कहीं से मुसाफिरी करके लौट रहे थे। एक के साथ मे दो अटेचियाँ (पेटी) थीं। बे तीनो एक घर के सामने रुके और घर के दरवाजे पर दस्तक दी। कुछ  देर बाद दरवाजा खुला..सामने एक बहुत ही खूबसूरत 16 - 17 साल की लड़की लाल रंग की साड़ी में खड़ी हुई थी लग रहा था उसने अभी अभी नहाया है..उसके बाल बिल्कुल गीले थे लेकिन उसके होठो पर लाल रंग की लाली और आंखों में गहरा काजल सजा हुआ था। गले मे लंबा सा मंगलसूत्र था और माथे पर कुमकुम लगी हुई थी। उस लड़की ने दरवाजा खोलते ही अपने सिर पर घूँघट ले लिया था और तीन लोगों में से दो लोगो के चरणों मे वह झुक गई थी। वह लड़की और कोई नहीं बल्कि भगवान की प्रेमिका साध्वी थी..जो अब उसकी पत्नी बन चुकी थी। "मगर तुमने बेटा यह ठीक नहीं किया..." चिटाइ पर बैठी हुई भगवान की मां ने साध्वी से कहा। "अम्मा! जो हुआ उसमे साध्वी की या मेरी कोई गलती नहीं थी। यह तो सब इत्तेफाक से हुआ।" भगवान ने अपनी मां को समझाते हुए कहा। "तुम्हारे पिता जी बहुत दुखी रहतें हैं बेटा!" भगवान के दादा ने साध्वी से कहा। "दादा जी मैं भी उनसे मिलना चाहती हूं। मगर..अब अगर ऐसा हुआ तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। न! तो मैं भगवान का साथ दे पाऊँगी और न ही अपने परिवार का।" साध्वी भगवान के दादा और मां के सामने खाने की थालियां रख कर बोली। "अरे! बेटा मैं तेरे साथ ही खाऊँगी।" भगवान की मां ने साध्वी को खाना परोसने से रोकते हुए कहाँ। ......* 


 "जाने चले जाते हैं कहाँ..दुनिया से जाने वाले.." सभी के बीच बैठा हुआ भगवान रेडियो में यह गाना सुनते हुए अपने दद्दू को याद कर रहा था जो दो दिन पहले ही उसको हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे। "ये रेडियो अब बंद करदे बेटा! इन गानों को सुन कर दुख होता है।" भगवान के पिता जगन्नाथ बोले। "नहीं बापू..यह मेरे दद्दू का पहला दोस्त है..मैं इसे हमेशा अपने पास रखूंगा।"भगवान रेडियो को उठाकर उसे देखते हुए कहता है। "और तूँ शादी करायेगा या नहीं..?? देख कल तूँ फिर शहर जा रहा है..नौकरी वाला आदमी है न दुख में ज्यादा रुक सकता है न सुख में। इसलिए जो बात है सो अभी बता...मैंने तेरे लिए कुछ लड़कियां देखीं हैं..अब तो साध्वी भी नहीं रही इस दुनिया में। अब तो उसे भूल जा..और शादी कर ले बेटा बहुत बड़ी जिंदगी है तेरी..ऐसे नहीं गुजरेगी।" जगन्नाथदास अपने बेटे के कांधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं। "बापू मेरे पास सबकुछ है! मैं अपनी जिंदगी जी रहा हूँ! आप मेरी चिंता मत कीजिये। मैं जाता हूँ अब सोने...आप सब भी सो जाइये.. रात बहुत हो गई है।" भगवानसिंह इतना कह कर रेडियो को अपने सीने से लगाये हुए घर के अंदर चला जाता है। ....* 


 "तुम जानती हो साध्वी इस रेडियो में क्या है?" "हां! तुम्हारे दद्दू की आत्मा..!" "अरे! नहीं पागल इसमें सबकी आत्मा है..तुम्हारी मेरी, मेरी दादी की मेरी मां की.." "वो कैसे..." "मेरी मां इसी को सुनते हुए घर मे अकेले अपने कामों में लगी रहती है..मेरी दादी को इससे प्रेम इसलिए था क्योंकि यह मेरे दादा जी का सबसे पहला दोस्त था और मेरे दादा जी का सबसे पहला दोस्त इसलिये था क्योकि जब सब उन्हें छोड़ कर चले जाते थे तब यही उनके साथ रहा करता था। और यह इसमें मेरी जान इसलिए बसी है क्योंकि इसने ही तुम्हे मुझसे मिलाया है, और तुम्हारी आत्मा इसमें इसलिए है क्योंकि तुम्हें नई-नई जानकारियां लेने का बहुत शौक है.." "उफ्फ..तुम कितने बुद्धू हो।" भगवान के सिर को अपनी गोद में रखे हुए साध्वी हँस कर कहती है। ......* 


 1980.. भगवानसिंह ठाकुर और साध्वी देवी को यह अदालत धोखाधड़ी करने के जुर्म में 20-20 साल की सजा सुनाती है। "मैं इस रेडियो को अपने साथ रखना चाहता हूं।" भगवान सिंह इंस्पेक्टर से बोला। "क्यों इसमें ऐसा क्या है??" "इसमें मेरे अपनों की यादें है जो मुझे 20 सालों तक सुकून की नींदे देंगी।" "तब तुम्हे यह नहीं मिलेगा..जिसने एक भले इंसान के साथ इतना बड़ा धोखा किया उसे सुकून की नींद कभी नहीं मिलेगी।" इंस्पेक्टर ने भगवान के हाथों से वह रेडियो छीनते हुए कहा। उस जैल में साध्वी और भगवान कभी कभी एक दूसरे को देख लेते थे मगर उन्हें मिलने की इजाजत नहीं दी जाती थी। समय बीतता चला गया और अब भगवान अपनी सजा पूरी करके इंस्पेक्टर के सामने खड़ा था अब वह किसी नवजवान से कोई अधेड़ बन चुका था..उसकी आंखें बिल्कुल लाल और चेहरा बहुत डरावना लगने लगा था। लगता था जैसे उसने 20 साल से आंखे बंद नहीं की थीं। "मेरी साध्वी कहाँ है??" "तुम्हारी साध्वी अस्पताल में है..जाओ जा कर मिल लो।" इंस्पेक्टर ने भगवान का रेडियो उसके हाथों में थमाते हुए कहा। ......* 


 सन 2000.. "साध्वी..."अपनी बूढ़ी आंखों से साध्वी को क़ई सालों बाद देखकर आसुंओ से भीगते हुए भगवान ने कहा। "रेडियो तो चला लो पहले! बहुत दिनों से कोई जानकारी नहीं सुनी..इस रेडियो पर.." साध्वी अपने पलंग पर उठकर बैठते हुए बोली। "तुम्हे क्या हुआ है??" "मुझे कुछ नहीं हुआ! तुम एक बात बताओ भगवान..तुमको इस सजा से कितना फर्क पड़ा??" "रत्तीभर नहीं!" "क्यों??" "क्योंकि....इस सजा से बड़ी सजा वो होती जब तुम मुझे कभी नहीं मिलतीं! तुम मेरे पास रहीं भले ही कुछ दिन तक सही और हां! सबसे बड़ी वजह यह है कि हम बेकसूर हैं..सजा जरूर मिली लेकिन हम गुनहगार नहीं है।" भगवान साध्वी की आंखों में देखते हुए कहता गया। "मैं बहुत खुश हूं...की तुम्हारा ये रेडियो अभी तक सलामत है।" "मैं भी..." "अब आगे क्या करना है..?? तुम्हे! अब तो नौकरी भी नहीं है और तुम्हारे पिता ने भी तुम्हे त्याग दिया था।" "कुछ नहीं बाकी का वक़्त तुम्हारे साथ..और इस रेडियो के साथ गुजार देना है..!" भगवान की बात सुनकर साध्वी बहुत जोरो से हँसने लगी। "क्या हुआ तुम्हे..." भगवान ने साध्वी को इतना हँसते हुए देख कर पूछा। "सुनो! तुम इस रेडियो को कभी मत छोड़ना..तुम्हे मेरी कसम है।" साध्वी अपने पास बैठे भगवान के हाथ पर हाथ रखकर बोली। .....* 


 2010... "अरे! काका ये क्या कर रहे हो??" " अपनी आपबीती लिख रहा हूँ बच्चे!" "फिर इसका क्या करोगे??" "किसी को सुनाऊंगा..तो वह खुश होगा। उसे मजा आयेगा!" "अरे! ऐसा है...तो मुझे भी सुनाओ!" "मैं लिख दूंगा फिर खुद ही पढ़ लेना..." "ठीक है। लेकिन चलो अभी चल कर खाना खा लो। अम्मा बुला रही हैं.." "नहीं मैं खुद ही बना कर खाता हूं बेटा!" "ठीक है...मैं अम्मा से कह दूंगा। लेकिन आप क्या हमेशा यह रेडियो ही सुनते रहतें हैं??" "और.. क्या!" "क्यों??" "क्योंकि... इसमें क़ई  जिंदगियां  हैं।" "माने..??" "माने.. रेडियो में मेरे अपनो की यादें है।" "मुझे न आया कुछ समझ! मैं चला रोटी खाने।" रोहित इतना कह कर निकल गया। "आप सुन रहे है..."दास्तान हमारी..." यह आत्मकथा हैं श्री भगवानसिंह ठाकुर जी की... जीवन का पहला गाना जो गुनगुनाया था.."नये पुराने साल में एक रात बाकी है.." यह रात हमेशा ही बाकी रही...कभी मेरे जीवन से नहीं निकली। सबकुछ खोते हुए भी मेरे साथ बना रहा यह रेडियो..जिसने मेरी हिम्मत बनाये रखी। साध्वी कि शादी होना ही मेरे लिए मौत जैसा था। और उसके बाद जब पता लगा कि उसका जीवनसाथी उसे कष्टों के अलावा कुछ नहीं देता तो लगा जैसे किसी ने जख्म पर ही जख्म दे दिया है। मैंने बहुत बार चाहा कि उसे उस नर्क से निकाल लाऊं मगर ऐसा नहीं हो पाया। लेकिन किस्मत ने इस बार मेरा मान रख लिया था..। मेरे ऑफिस के चपरासी को रेडियो सुनने की बड़ी आदत थी..वह दिनभर ही इसे चलाये रखता था..और मेरे सामने तो वह बिना किसी झिझक के...ही। मुझे भी तो पसंद थे गीत, गजलें, लोकगीत..कहानियां..और जमाने भर की खबरें। और सबसे बड़ी बात थी मेरे दादा जी की याद..मेरे दादा जी हमेशा रेडियो सुना करते थे..मेरी दादी की याद में। समाचार प्रारंभ हुआ..."एक आदमी और एक 16-17 साल की लड़की की लाश बीना बांध में मिली।" मुझे अचानक ही ख्याल आया कि बीना बांध के पास ही तो साध्वी रहती है..जहां उसका शराबी पति भी रहता है। मुझे बहुत घबराहट हुई..लड़की की उम्र साध्वी जितनी ही बताई गई थी। मैंने तुरंत रिक्शा पडका और बांध की ओर बड़ा..रात का वक़्त था। सुनसान रास्तों पर रिक्सा दौड़ रहा था। बांध के पास पहुँचते ही देखा वहां पुलिस और पत्रकारों की भीड़ लगी है। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। मैंने पास जाकर देखा तो दोनों ही लाशें बिल्कुल गल चुकीं थी। शायद हादसा दो तीन दिन पुराना हो चुका था। लड़के की पहचान की गई तो पता लगा वह साध्वी का पति श्याम था। मेरी आँखें डबडबा गयीं। जब वह श्याम था तो वह लड़की साध्वी ही हो सकती थी।पुलिस मुझे आगे नहीं बढ़ने दे रही थी। मैं सुबह तक वहीं बांध के पास बैठा रहा। सारी कार्रवाई चलती रही। किसी का ध्यान मुझपर नहीं था क्योंकि मैं किसी को दिखाई न दूँ ऐसी जगह पर बैठा हुआ था। सुबह हिम्मत करके मैं अपने घर की ओर बड़ा मैंने देखा कि मेरे घर का ताला टूटा हुआ था...मुझे सचमुच इस बात की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि किसी ने मेरे घर में चोरी की होगी। मैंने जैसे ही दरवाजे को अंदर की ओर ढकेला...सामने देखा तो साध्वी बैठी हुई थी। मैं उसे देखकर  दंग रह गया, उसकी आँखे रो-रो कर लाल हो चुकी थीं। मैंने खुदको संभालते हुए दरवाजे को ठीक से लगाया और साध्वी के पास गया। उसके आंसुओ को पोछते हुए मैंने उसे उसके पति के बारे में बताया कि अब वह इस दुनिया में नहीं है। उसने मेरी बात सुनकर..बताया कि वह यह सब पहले से जानती है। उसके पति और उसकी प्रेमिका रज्जो दोनों का कत्ल किया गया है। जो कि रज्जो के पति ने किया है। मैं तो उसके अत्याचार सहती रहती थी लेकिन रज्जो के पति को यह कतई मंजूर नहीं था और उसने एक दिन मौका पाते ही श्याम और रज्जो को मौत के घाट उतार दिया था। श्याम की एक नहीं अनेकों प्रेमिकाए थी..एक नम्बर का अय्याश आदमी था श्याम। मैंने उसके साथ जिंदगी का एक लम्हा चैन से नहीं गुजारा। आज वह मर गया है..उसके माता पिता गांव से अभी तक नहीं आये हैं। मुझे पता है वह लोग मुझे श्याम के बाद श्याम से भी बुरी जिंदगी देंगे। मैं पूरी जिंदगी का दुख तुमसे कुछ घड़ी की मुलाकात के बाद अपने कंधों पर लेना चाहती हूं। और इसलिए मैं तुम्हारे पास आ गई हूं भगवान! साध्वी के इन शब्दों ने मुझे तोड़ कर रख दिया था। मैंने निश्चय कर लिया था कि अब चाहे कुछ हो जाएं मैं साध्वी को पुनः उस नर्क की जिंदगी में नहीं जाने दूंगा। मैंने मेरे पास रखे चाकू की धार अपने अंगूठे पर फेरी और रिस्ता हुआ रक्त साध्वी की मांग में सजा दिया। यकायक रेडियो के नेटवर्क मिलते लगे..रेडियो में समाचारों का प्रोग्राम चल रहा था..."बीना बांध पर मिली दो लाशें! श्याम लौधी और उनकी पत्नी साध्वी लौधी की हैं, बताया जा रहा है कि यह मुआमला हत्या का है। जल्द ही इस मामले के अबूझ पहलूओ को आप तक लाएंगे। तब तक के लिए शुभरात्रि। इसी अंतिम समाचार के साथ समाचार सन्धा समाप्त। इस खबर ने मेरी प्रतिज्ञा बिल्कुल सरल कर दी थी और साध्वी अब मेरी पत्नी थी। कुछ छः महीनों के बाद रेडियो ने हमारे होश उड़ा दिए थे। समाचार था कि "छः महीने पहले मरी औरत साध्वी लौधी जिंदा नजर आयी।" इस समाचार को सुनते ही मैंने अपना तबादला बीना से दमोह कराने का आवेदन दे दिया था। आवेदन देने के दिन ही मैंने अपने घर जाकर अपनी मां और दादा जी को साध्वी के बारे में बताने का फैसला कर लिया था। चूंकि गांव बीना में ही था जो ट्रेन की कोई झंझट नहीं थी। बस का सफर करते हुए मैं अपने गांव पहुँचा जहां पाया कि मेरे दादा जी को साध्वी के विषय मे पहले से ही पता था। उन्होंने मुझसे जब कहा की उनका पहला दोस्त रेडियो है..तब मैं समझ गया था कि साध्वी के मरने और मरकर भी जिंदा दिखने वाली खबरों से ही दादा जी समझ गए थे कि साध्वी मेरे पास है। मैंने अपने प्यारे दद्दू और प्यारी मां को साध्वी से मिलवा दिया था। मगर कुछ सालों बाद ही..साध्वी के सास-ससुर ने साध्वी के जिंदा होने का पता लगा लिया था। और मैं और साध्वी, साध्वी को मरी हुई बताने के जुर्म में 20 सालों के लिए जैल चले गए थे। मौत का इल्जाम इसलिए नहीं लगा था क्योकि अपराधी रज्जो का पति पहले ही पकड़ा गया था। मैंने बीस साल तक साध्वी ठीक से नहीं देखा था..कभी कभार किस्मत से दिख जाती थी। पता नहीं ईश्वर ने किस गुनाह की सजा दी जिंदगी भर..मैं जिसे घूँट-घूँट पीता रहा। 20 साल बाद जब मैं अपनी सजा पूरी करके निकला तब मैंने पाया कि मेरी साध्वी किसी अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी मुझे देख कर खुश हो रही है और हँस रही है। 20 सालों में उसके शरीर ने उससे जिंदगी जीने का हक छीन लिया था..बीमारियों ने उसे घेर रखा था। उसके अंतिम शब्द मुझे जीते रहने पर विवश कर गए है..मैं चाह कर भी जिंदगी का दामन नहीं छोड़ सकता। उसने जाते हुए कहा था.."मैं तुम्हारी जिंदगी में दोबारा नहीं आती तो शायद तुम्हे अपनी जिंदगी के खूबसूरत 20 साल किसी नर्क की तरह न बिताने पड़ते लेकिन मैं खुश हूं कि तुम्हारे दादा जी का रेडियो अब भी तसलामत है..तुम मेरी याद समझ कर इसे सदा अपने पास रखना। और जिंदगी को गीतों की तरफ गुनगुनाना..खबरों की तरह सुनना और मनोविनोद से इसे फूलों की महकाते रहना। अब एक गांव में एक छोटे से घर में रहता हूं..जिसका किराया नहीं लगता। लगता क्या..जो इस घर की मालकिन है वह मुझे अपने पिता के समान मानती है और मुझसे इक रुपया नहीं मांगती। और इसलिए मैं उसके बेटे रोहित को रहासहा ज्ञान देता रहता हूँ उसकी किताबें तो मुझे समझ नहीं आतीं मगर जो मुझे आता है मैं उसे भलीभांति सिखाया करता हूँ। उसके घर तीन गायें हैं और एक नन्ही सी गाय भी..जिन्हें मैं पूरे गांव में घुमाता फिरता हूँ..अपने रेडियो और रेडियो में बसी मेरे अपनों की यादें लिए। कुछ दिनों की जिंदगी और फिर मैं भी तुम्हारे पास आस आ जाऊंगा साध्वी ठीक उसी तरह जिस तरह मेरे दद्दू मेरी दादी मां के पास चले गए थे।" रेडियो पर चल रहे प्रोग्राम में अपनी आपबीती सुनते हुए भगवान सिंह की आँखे भीग गयीं थी। वे सरसो के खेत में बैठे हुए एक मुस्कान के साथ अपनी आंखों से आंसू पोछ रहे थे तभी रोहित आया और रेडियो पर चल रहे गाने में विषय में भगवानसिंह से पूछने लगा। भगवानसिंह गाने के मर्म को समझाते रहे और रेडियो गाना गुनगुनाता रहा.."सारंगा तेरी याद में नैन हुए बैचैन..मधुर तुम्हारे मिलन बिना दिन कटते नहीं रैन.... सारंगा तेरी याद में।" 


समाप्त! 


 लेखिका - सुरभि गोली (मौलिक रचना)