“हे माधव! हे मुरारी! हे नंदलाल! मेरे बच्चे को, मेरे इकलौते बच्चे को बचा लिजिये!, मेरे राजदुलारे को बचा लीजिये, म..मैं...मैं उसके बिन एक पल भी नही जी सकती, मुझे उठा लीजिये पर मेरे बच्चे को बचा लीजिये!”
'मान्यता देवी' त्रिभंगी लाल की प्रतिमा के आगे हाथ जोड़कर फफक-फफक कर रोये जा रही थी।
“क्यों? क्यों बचा लें?”
मान्यता देवी चौंक कर इधर उधर देखने लगी। आस-पास कोई न था सिवा केशव की प्रतिमा के।
“प्रभु! मेरे प्रभु! ये अ..आप….”
मान्यता देवी हर्ष और आश्चर्य मिश्रित स्वर में एकटक प्रतिमा की ही तरफ देखकर बोल पड़ी।
“हाँ! यह मैं ही हूं, क्यों बचा लूं बोलो?”
“आप मेरे प्रभु हैं, मेरे स्वामी, मैं आपकी शरण मे हूँ प्रभु ! मेरे बच्चे की रक्षा कीजिये….”
“मैं सबका प्रभु हूँ, पूरे चराचर जगत का प्रभु हूँ, सभी जीवधारी मेरे ही बच्चे हैं, सिर्फ तुम ही नही! तुम्हारे बच्चे की ही रक्षा क्यों?”
“प्रभु! मैं एक माँ हूँ और मैं बचपन से ही आपकी भक्त हूँ प्रभु! रतन मेरा इकलौता बेटा है प्रभु! मैं उसके बिना नही रह सकती! नही रह सकती! प्रभु! उसे बचा लीजिये। उसके बदले मुझे मार दीजिये पर उसे बचा लीजिये प्रभु!”
मान्यता देवी लगभग फूट-फूट कर रोने लगी थी।
“जिस मेमने का मीट तुम लोग उस दिन बड़े चाव से खा रहे थे, वो भी तो किसी का बेटा था।
वो भी इसी तरह मुझसे विनय कर रही थी, प्रार्थना कर रही थी, क्या वो माँ नही थी? क्या तुम्हें उसके दर्द का एहसास नही हुआ? जिस मुर्गी का अंडा तुम लोग छीन कर खा जाते हो, क्या उसको दुख नही होता? क्या वो माँ नही है?
फ़...फ़...फिर तुम्हे ही क्यों?” आवाज में लड़खड़ाहट उत्पन्न हो चुकी थी।
“त...त..तुम्हारा ब..बेटा भी तो मना किया करता है..प...पर तुम लोग नही मानते!” पुनः प्रतिमा से ही लड़खड़ाती हुई आवाज आई।
मान्यता रोये जा रही थी, उसे अपने पर पछतावा हो रहा था।
“म...माँ… माँ…. ” सहसा प्रतिमा के पीछे से घुटी सी आवाज आई।
भद्द से कुछ गिरने की भी आवाज आई।
मान्यतादेवी दौड़कर प्रतिमा के पीछे गयी और चौंक पड़ी।
वो रतन ही था जो कई दिनों से कोरोना से पीड़ित था।
मान्यता देवी उसे फ़टी-फ़टी आंखों से देख रही थी।
न्याय हो चुका था।
लेखक - सूरज शुक्ला
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