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Friday, June 10, 2022

पुस्तक समीक्षा "लिक्टर"

     किसी किताब पर ये मेरी पहली समीक्षा है, जिसे मैं समीक्षा की तरह लिखने की पूरी कोशिश करूंगी।


    तो उसके पहले मैं बता दूं कि अब तक मैंने बहुत ज्यादा किताबें नहीं पढ़ी हैं, जिसको आप न के बराबर भी कह सकते हैं।


    लेकिन मैंने दो-चार जितनी भी किताबें पढ़ीं हैं, उनमें से जिसकी समीक्षा देने का मन मैंने आज बनाया है, वो वाकई में काबिल-ए-तारीफ  है और मेरी पसंदीदा भी बन चुकी है।


    अब नाम बताने में देर कैसी, तो उस पुस्तक का नाम है 'लिक्टर' यह एक ईरानी लघु-उपन्यास है जिसके लेखक 'मोहम्मद आबेदी जी' हैं व इस लघु-उपन्यास का हिंदी अनुवाद 'आलोक कुमार जी' ने किया है।


    जो बेहद शानदार और जानदार है। ये मेरी या हम सबकी खुशनसीबी है कि इतने बढ़िया लघु-उपन्यास का हमारी भाषा हिंदी में अनुवाद हुआ और हमें उसे पढ़ने का मौका मिला।


    उपन्यास के शुरुआत में ही लेखक ने अपनी कल्पनाओं को शब्दों में पिरोने की अपनी कला को इस तरह पेश किया है कि जो भी एक बार इसे पढ़ने बैठे, बस बैठा ही रह जाये। शुरुआत से ही अपने शब्द जाल में पाठक को बांधने का  आबेदी साहब का ये तरीका बेहद ही खूबसूरत है।


    इस उपन्यास के सार पर जाए उसके पहले इसकी भाषा-शैली पर जरा गौर फरमा लेते हैं। उपन्यास की भाषा शैली इतनी सरल है कि बीच बीच में शब्दों को समझने के लिए या किसी वाक्य को दिमाग में फिट बैठाने के लिए पाठक को बार बार ठहरना न पड़े।


    साथ ही इस उपन्यास के वे छः महत्वपूर्ण किरदार जिन्हें ऐसे गढ़ा गया है जैसे वो दुनिया के इस रंगमंच के असल किरदार हों।


    उनका डरना, उनका खाना, सोना, उठना, बैठना, बाते करना, और फिर मरने के लिए दिल पर पत्थर  सा रख लेना।


    ये सब कुछ ही है जो शुरू से अंत तक पाठक को अपने साथ बनाये रखता है।


    इस उपन्यास में किरदारों को इतनी बारीकी से बुना गया गया है कि हर इक की भावना हमें अपनी सी दिखाई पड़ती है।


    यह उपन्यास एक ऐसी परिस्थिति की कहानी है जो न आज तक मैंने देखी है और न ही आपने।


    इस उपन्यास का सार आपको किसी उत्तर के रूप में नहीं बल्कि प्रश्न के रूप में मिलेगा।


    सोचिए जरा, कभी ऐसा हो जाये कि इस पूरी दुनिया में सिर्फ चंद लोगो या पांच - छः लोगो के सिवा और कोई इंसान न बचे? क्या तब भी आपके अंदर जीने की ललक होगी?


    आप अपने परिवार को, दोस्तो को और उन सभी चीजों को जो आपके लिए जीने की वजह थीं, वो सब खो जायें तो क्या आप जी पायेंगे??


    शायद इस वक़्त आपका जवाब होगा; असम्भव! ऐसा कैसे हो सकता है, जब हमारे अपने, हमारी चहेती चीजें या जो हमारे जीने का आधार थे, वे ही नहीं तो इस जीवन में फिर बचा ही क्या होगा?


    लेकिन परिस्थिति! जब तक हमें सिर्फ कल्पना करना हो, तब तक हमारे सारे सिद्धांत हमारे साथ होतें हैं, लेकिन जब हम उस परिस्थिति का साक्षत्कार करते हैं तो शायद हमारे मूल्य भी हमें याद नहीं रहते, बस बचता है तो डर! मर जाने का या किसी खौफ नाक हादसे का।


    हां पर शायद ऐसा हो सकता है कि जब आपको कोई आसान मौत मरना पड़े तो आप या मैं मरने से न घबराए, लेकिन सोचिए आपको अपने जीवन की बलि देनीं है, वो भी एक खौफनाक ढंग से..तब भी आप चाहेंगे कि मैं मर जाऊँ?? अपने परिवार के बिना, साथियों के बिना, इस जीवन की खूबसूरत चीजों के बिना जीवन कैसा? क्या तब भी आप यही सोचेंगे???


    शायद ही कोई ऐसा जांबाज़ हो!


    ये कहानी आपसे उत्तर मांगती है, कि आपका खौफ क्या आपके मूल्यों से ज्यादा प्रभावशाली है?


    आपके सामने कोई भूखा है और आपने हमेशा हर भूखे को भोजन दिया लेकिन एक वक्त ऐसा आये जब आपके पास अपर्याप्त भोजन हो जो सिर्फ आपकी भूख मिटाने के लिए ही काफी है और आप उसे खाने जा रहे हों पर तभी कोई भूखा आ जाये तो क्या तब भी आपके सिद्धांत आपके साथ होंगे?


    क्या आप अपनी भूख को नजरअंदाज करते हुए उसे अपना भोजन दे देंगे? या फिर आपको पता हो कि इस भोजन के बाद आपको भोजन मिलने वाला नहीं है तो क्या आप अपने भोजन को आपके सामने खड़े भूखे से बांट सकतें हैं??


    ये कहानी एक ऐसी परीक्षा है जो असल में एक मनुष्य की कमजोरी को नँगा करके रख देती है।


    चलिये इसे भूल जाते हैं और बात करते हैं कहानी के अंत की, कहानी का अंत अगर मैंने आपको बता दिया तो लेखक की मेहनत का तिरस्कार होगा।


    लेकिन कुछ न कुछ कहना तो बनता ही है, इसका अंत इतना रोचक है कि शायद आपकी आंखें पसीज जाएं! और आप जान जाएं कि स्वार्थ का परिणाम क्या होता है?


    आपके पास जब तक भोजन होता है, पानी होता है, आपके दोस्त होते हैं, माता-पिता होते हैं या कोई भी ऐसी चीज जो आपके लिए असल में जरुरीं है पर तब तक आप उसका मूल्य नहीं समझ पाते, और जब वो सब आपके हाथों से फिसल जाता है तो आप केवल पछतावे के कुछ नहीं कर सकते कुछ भी नहीं!


    एक बात और है जो रह गई, ये कहानी मनुष्य को हार न मानने की प्रेरणा भी देती है, लेकिन फिर वही बात..जब तक आपके पास जीतने की ताकत होती है तब तक आप उसका इस्तेमाल करना नहीं चाहते, पर जैसे ही आप हार के सम्मुख खड़े होते हैं, तब आपका जोश जाग उठता है और होता वही है जो आप नहीं चाह रहे थे, जिसे कहते हैं 'हार!'


    ये तो मेरे मन की आतुरता थी। मैं चाहती थी कि मैं अपने इस अनुभव को केवल स्मृतियों में नहीं बल्कि शब्दो में भी सहेज कर रखूं!


    इसलिए ये समीक्षा मैंने की है। मैं आप सब से आग्रह तो नहीं करूंगी, कि आप इस लघु - उपन्यास को पढ़े! लेकिन जैसा कि हर इंसान अपनी पसंदीदा चीज को दूसरों के साथ भी शेयर करना चाहता है और चाहता है कि हमारे जानने वाले भी इसका आनंद लें, और एक उम्दा अनुभव अपने साथ रखें!


    तो इतना जरूर कहूंगी कि अगर आप पढ़ने के शौकीन हैं तो इसे पढ़ सकते हैं और साथ ही साथ मुझे भी बता सकते हैं कि मैं पुस्तक को कितना समझ पायी हूँ या फिर मैंने सिर्फ अच्छाइयों पर ही प्रकाश डाला है या फिर उसकी कमियों को मैंने कितना नजरअंदाज किया है।


    इसी के साथ मैं एक बात और स्पष्ट कर दूं कि कहानी का उद्देश्य मेरे मन को इतना छू गया कि शायद मेरा ध्यान सचमुच किसी कमी पर नहीं गया या फिर शायद कमियां इसमें कहीं थी ही नहीं!


    इसी के साथ मैं अपनी कलम को यही विराम देते हुए आप सबसे विदा लेती हूं।


    मैं, सुरभि गोली..✍🏻

4 comments:

  1. दिल से की गई भावपूर्ण समीक्षा, शब्द शब्द में उपन्यास के प्रति प्रेम झलक रहा है।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका🙏😊

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  2. यें किताब तो बहुत बकवास है

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  3. शायद आप उसे नहीं समझ पाये या फिर खुद मैं ही! समीक्षा पर समीक्षा के लिए धन्यवाद।

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