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Saturday, June 4, 2022

सरंगा तेरी याद में!

"सारंगा तेरी याद में.." 


 खेत के बीचों बीच "भगवान काका" रोहित को मुकेश कुमार माथुर साहब के गीत "सारंगा तेरी याद में.." सुनाते हुए..इस गीत के मर्म को समझाने की कोशिश कर रहे थे। रोहित भी कान लगाए बड़े प्रेम से भगवान काका की बातों में उलझा हुआ था। लग रहा था सरसो की फसल भी काका की बातों में खोयी हुई है, मानो पीले रंग की साड़ी में कोई सुंदर स्त्री किसी की प्रेम भरी बातों में रमी है। "मैं और तुम्हारी काकी बिल्कुल अमिताभ और जया जैसे थे! वह छोटी सी मैं बांस की तरह.." काका की बात सुन कर रोहित खिलखिला कर हँस पड़ा..."क्या क्या..बांस जैसे..हेहेहे!" "हां! और क्या..??" "बड़ी याद आती होगी न काका! काकी की? तुमको चूल्हा फूंकना पड़ता है अब..और दसों काम घर के, बाप रे बाप मेरी अम्मा तो ननिहाल एक दिन के लिए भी जाती है, तो मेरे बापू को नानी याद आ जाती है।" रोहित की बात सुनकर काका हँस पड़े। और खड़े होकर अपनी नन्ही सी गाय हांकते हुए अपने घर की ओर बढ़ गए। .....*


 सन 1960, आज से 60 साल पहले..जिला बीना मध्यप्रदेश में सबसे धनी किसान जगन्नाथदास के बेटे भगवान सिंह के जन्मदिन की खुशी में दावत रखी गयी थी। जगन्नाथदास का घर बहुत बड़े क्षेत्र में बना हुआ था। दीवारों पर लगी खूटियों पर लालटेनें लटक रहीं थी। शायद गांव की बिजली चली गई थी। आँगन में 8, 10 बड़ी बड़ी खाट बिछा दी गई थीं। घर के पिछवाड़े में 20 भैंसे भूसे के मजे ले रहीं थी और उन्ही के एक बदल बंधी हुई 10 गायें जुगाली करने में व्यस्त थीं। दर्जन भर बकरियां मिमियाने लगी थीं। आम और नीम के पेड़ भी भगवान सिंह के जन्मदिन की खुशी में झूम रहे थे। बेचारे झींगुरों ने अपने को कोई कब्बाल समझ लिया था..मगर किसी के कानों को उनकी कब्बलिया नहीं भायीं। धीरे-धीरे गांव के बड़े बूढ़े और भगवानसिंह के यार दोस्त खाट पर पसरते जा रहे थे। सबकी नियत एक मिट्टी और ईंटो की बनी भट्टी पर पक रहे हलुए पर थी। भगवानसिंह के बड़े काका और बड़े काका का चौथा लड़का लोहे की बड़ी कड़ाई में खूब बड़ी चम्मच से हलुआ पकाने लगे थे। बुजुर्ग औरतें और भगवानसिंह की मां की उम्र की स्त्रियां सिर से गले की माला तक घूँघट किये हुए झुके सर के साथ घर के भीतर घुसी जा रहीं थी। बच्चों का चुलबुलापन और बुजुर्गों की समझदारी भरी बातें वातावरण में फैली हुई थीं। रात के 8 बजने को थे। भगवान सिंह अपने दादा और उनके दोस्तों के पास बैठा हुआ रेडियो पर प्रसारित होने वाले "गीतों का काफिला" प्रोग्राम का इंतजार कर रहा था। अपने दादा से भगवान सिंह की दोस्ती बिजली के दो भिन्न आवेशों वाले तारों की तरह थी, दादा के बिन भगवान सिंह की खुशियो का बल्ब नहीं जलता था और भगवान सिंह के बिना उसके दादा के जीवन की बत्ती नहीं जलती थी। अपने दादा के साथ ही भगवान सिंह ने जीवन के अच्छे और बुरे अनुभव जाने थे। "तितली को बंद मुट्ठी में नहीं तितली को खुले आकाश में उड़ते देखना ही निश्छल आंखों की पहचान है.., फूलों के इत्र को कपड़ो में छिड़क कर नहीं, फूलों की महक को हवाओं में महसूस करना ही निष्पाप सांसों का धर्म है। कंचन आंखों में होता है, कंचन कोई धातु नहीं हमारी दृष्टि है।" इन्ही सब बातों से प्रेरित भगवान अपनी मां से लेकर गांव की सभी स्त्रियों का सम्मान और कीट से लेकर हाथी तक की भावनाओ की कद्र करता था। सोने और चांदी से उसका नाता धरती और आकाश की तरह ही था। उसके लिए जीवन का अर्थ सभी की भावनाओ का सम्मान करना और अपने कर्म के प्रति सजग रहना था। "कितना मजा आएगा न! दद्दू! जब गीत होंगे और मेरे जन्मदिन की दावत! अब बस 5 ही मिनट रह गए हैं..8 बजने में। खाना भी तैयार हो गया है..चिटाइयाँ भी बिछा दी गईं हैं..बस अब सब अपनी अपनी जगह ले ले! फिर सब जन गीतों को सुनते हुए दावत का आनंद लेंगे।" "भगवान जा तेरी अम्मा तुझे बुला रही है..जरा उनकी सुन ले फिर अपने रेडियो में घुस जाना।" एक पतला दुबला लड़का जिसकी लंबाई लगभग 6 फुट होगी, भगवान सिंह के सामने पत्तलें लिए खड़ा कहता है। भगवान सिंह की अम्मा 50 रुपये का नोट भगवान सिंह पर न्योछावर करते हुए उसके ललाट पर चुम्बन कर देती है और उसे लंबी आयु का आशीर्वाद देती हुई अपने हाथों से हलवे का एक निवाला उसके मुंह मे रख देती है। "अम्मा! इतना प्रेम क्यों लुटाती हो मुझ पर। मुझे रोना आता है।" भगवान सिंह अपनी मां से लिपट जाता है। "अरे! कैसी बातें जानने लगा है रे तूँ! लगता है इसका बियाह करना पड़ेगा अब..क्यों मंझली?" भगवान की मां उसको अपने सीने से लगाये हुए, पुड़िया निकलती हुई एक औरत से कहती है। रेडियो पर प्रोग्राम शुरू हो चुका है। प्रोग्राम का पहला गीत..."दिल का खिलौना हाय! टूट गया..." अम्मा मैं जाता हूँ दद्दू के साथ खाना खाऊंगा। तुम भी खा लो। "क्या हुआ दद्दू आप खाना क्यों नहीं खाते?" भगवानसिंह अपने दादा को शांत बैठे हुए देख कर कहता है। "बेटा इन गीतों से तेरी दादी की याद आ जाती है। तुझे पता है आज से 5 साल पहले जब तूँ 10 साल का था, तब आज ही के दिन  तबियत ठीक न होने के कारण वो हमसब से हमेशा के लिए दूर चली गईं थीं। लेकिन हां! वो तुझसे सबसे ज्यादा प्यार करती थी..सबसे ज्यादा और इसलिए उनके मर जाने पर भी तेरा जन्मदिन हमसबको मनाना पड़ा था। लोगो ने क़ई बातें बताई रीति रिवाज रस्में लेकिन तेरी दादी की इच्छा थी कि उसका प्यारा पोता कभी रोये न! इसलिए उस दुख की घड़ी में भी तेरा मुँह मीठा कराया था।" भगवानसिंह अपने दादा की बातें बड़े चित्त से सुन रहा था। वह अपने दादा की उदास आंखों में भी उसके जन्मदिन की खुशी का बड़ा सा हिस्सा देख रहा था। अपने दादा की आंखों में झांकते हुए उसने रेडियो को बंद कर दिया। रेडियो के बंद होने पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा था मगर "अरे! यह क्यों बंद कर दिया?" "दद्दू! जो चीजें तुम्हे तककीफ देतीं हैं उन्हें क्यों अपने साथ लिए घूमते हो। इस रेडियो से तुम्हारी कितनी यादें जुड़ी है..दादी के साथ वालीं और तुम उन्ही यादों में रोते हो। इसे बंद करके रख दो आज..मैं तुम्हारी आँखों मे यह आंसू नहीं देख सकता।" अपने दादा के सवाल का जवाब देते हुए भगवानसिंह कहता है। "अरे! नहीं रे पगले! इन्हीं गीतों ने तो मुझे अभी तक जिंदा रखा है..वरना मेरा क्या ही काम रह गया है इस दुनिया में। इक तूँ और दूसरा यह रेडियो। इन दोनों के बिना मेरा जीवन..कैसा जीवन?" ......*


 "अरे! ये..भगवान! ये क्या कर रहा है रे?" "कुछ न दद्दू! मेरा एक दोस्त है कालेज का उसके लिए पत्र लिख रहा हूँ।" "तो ये पर्ची ऐसे क्यों छुपा रहा है जैसे कोई प्रेम पत्र लिख रहा है।" "अरे! नहीं दद्दू! तुम भी क्या!" बोलते हुए भगवान के पसीने छूट रहे थे। "देख भई! मेरे दिन लगभग पूरे हो चुके हैं कब तुझे छोड़कर तेरी दादी के पास पहुँच जाऊँ कोई नहीं कह सकता? इसलिए शादी करा लें! और चिट्ठी किसे लिख रहा है सच सच बता दे।" घर के एक कमरे में भगवानसिंह और उसके दादा की बातें हो रहीं थीं।जहां एक खाट बिछी हुई थी और अलमारियों में 8-10 किताबे जमी थी। एक खूंटी पर भगवान और उसके दादा के कपड़े टंगे थे। "क्या दद्दू! कैसी बात करते हो! मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने देने वाला। और हाँ! ये चिट्ठी...." बहुत जोश में भरा हुआ भगवान अंतिम शब्द बोलता हुआ सहमा। "ये तेरी प्रेमिका की है??" अपने दादा के मुँह से यह बात सुनकर भगवान शर्म से नहा गया।

 

"प्रिय! साध्वी,                                                  16 फरवरी 1962 तुम्हारे बिना अब मन नहीं लगता है। जी चाहता है तुम्हें अपनी पीठ पर लाद कर अपने घर ले आऊं, और अम्मा से कहूं! ये लो तुम्हारी बेटी ले आया हूँ..हां! मगर ये मेरी पत्नी रहेंगी। सुनों, प्रिय! मैं तुमसे जितना प्रेम करता हूँ उतना ही अपनी अम्मा से भी। उनकी कोई बेटी नहीं है तो तुम सदा उनकी बेटी बनकर उनके साथ रहना। बस मेरे बापू और तुम्हारे बापू मान जाएं तो मेरी अम्मा को एक बेटी और मुझे मेरी प्यारी साध्वी मिल जायेगी। इस सोमवार को नहीं आ पाऊंगा, मगर अगले सोमवार को तुम्हारी राह जोहता हुआ तुम्हारा पागल प्रेमी भगवान..उसी नारंगी पलाश के पास मिलेगा। तुम्हारा दास.. भगवान" 


 अरे! वाह मेरे बेटे! पत्र तो बड़ा अच्छा लिखा है। यही दोस्ती का रिश्ता है हमारे बीच क्यों? अपनी मां के लिए बेटी ला रहा है और मुझे बताया तक नहीं।" पत्र को बंद करते हुए भगवान के दादा बोले। .....* 


 "हां! बाबू जी मैंने भी भगवान के बियाह के लिए लड़कियां देखनी शुरू कर दी है मगर उसके हिसाब की कोई नजर ही नहीं आती। अब वह पढा लिखा लड़का है और उसकी पसन्द भी तो हम जानते हैं उसे वो लड़कियां नहीं भायेगी जिन्हें मैंने देखा है।" भगवान के पिता, भगवान के दादा से कहतें हैं। "तो उसी से पूछ लें कोई लड़की पसंद हो उसे तो।" "क्या बाबू जी आप भी, आप क्या उसे जानते नहीं, वह कहां इन मामलों में.." "अरे! पूछने में क्या जाता है?" "ठीक है आज शाम को बात करता हूँ उससे" .....* 



 "क्यों भाई भगवान शादी करोगे?" भगवान के पिता जगन्नाथ दास ने भगवान के अंदर आते ही कहा। अचानक के सवाल से भगवानसिंह कुछ समझ नहीं पाया और हड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चला गया। दूसरे दिन जगन्नाथ और उसके पिता दोनों साध्वी के घर पहुँचे। जहां जाकर पता चला कि साध्वी के पिता जगन्नाथ के पक्के दुश्मन थे। दोनों की कभी नहीं जमती थी। और इसलिए साध्वी और भगवान का रिश्ता नहीं हो पाया था। भगवान के दादा ने जगन्नाथ को बहुत समझाने की कोशिशें की थीं मगर.... .....* 



 "सर! चाय!" एक चपरासी दफ्तर की एक बड़ी सी टेबल पर चाय रखते हुए बोला। "क्यों भाई.. श्याम..तुम्हारा रेडियो क्या बीमार है??" टेबल के पास रखी एक कुर्सी पर बैठे हुए एक नवजवान लड़के ने कुल्हड़ उठाते हुए कहा। "नहीं! साहब..आज हमारा मन नहीं है! रेडियो सुनने का।" "अरे! क्यों? ऐसा क्या हो गया?" "गाने सुनते है तो हमे हमारी प्रेमिका की याद आ जाती है बाबू!" "अरे! गीतों का यही तो मजा है..जो पास नहीं है उनको भी अपने पास महसूस करातें हैं!" "अच्छा चलो अब मैं चलता हूँ मुझे अपने गांव जाना है आज.." कुल्हड़ रखते हुए कुर्सी को पीछे खिसकता हुआ उठा। .....* 



 "बेटा! शादी कर ले अब, अब तो तूँ चाकरी वाला हो गया है। तेरी अम्मा को बेटी नहीं लाकर देगा क्या?" भगवान की मां शहर से लौटे हुए अपने बेटे को पानी पिलाते हुए बोली। "मां! तेरी बेटी, तुझसे मिलना चाहतीं है!" भगवान ने अपनी मां के कान में फुसफुसाते हुए कहा। "क्या..??" जोर से चिल्लाती हुई अपनी मां के मुँह पर हाथ रखता हुआ भगवान कहता है..."बापू को कुछ मत बोलना।" "मगर.." उसकी मां कुछ कहती उसके पहले ही उसके पिता जगन्नाथ दास आ गए। और उनकी मां चुप हो गई। ......* 



 आँगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठे भगवान के दादा रेडियो पर समाचार सुन रहे थे। तभी भगवान उनके पास जा कर बैठ गया। "और बेटा! साध्वी कैसी है??" दादा की बात सुनकर भगवान के होश फाख्ता हो गए थे। "दद्दू!" भगवान अपने दादा का मुँह आश्चर्य के ताकत हुआ बोला। दादा की आंखों में उदासी देख कर भगवान जैसे उनके मन की सारी बातें समझ गया था..उसने फिर कुछ न पूछते हुए कहना शुरू किया.."वो ठीक है दद्दू..मैं कितना बुरा हूँ न! आप मुझसे इतना प्यार करतें है और मैंने आपको ही कुछ नहीं बताया! लेकिन मैं बिल्कुल सच कहता हूं.. दद्दू मैं अभी आपके साथ साध्वी के बारे में ही बात करने आया था।" "मुझे पता है मेरे बच्चे! तभी तो मैं तुझसे नाराज नहीं हूं! लेकिन मैं एक बात समझ गया..तूँ मेरा दूसरा दोस्त है पहला दोस्त तो यह रेडियो ही है।" भगवान के दादा रेडियो को अपनी गोद मे रखते हुए कहते हैं। "हां! दद्दू... मैं आपसे कितना दूर चला गया हूँ! और आपको अपने साथ भी नहीं ले जा सकता। लेकिन मैं जैसे ही वहां अपना घर बनवा लूंगा..आपको साथ ले चलूंगा।" "हाँ! तूँ मुझसे दूर चला गया है...और मुझे अपने साथ कभी नहीं ले जा पायेगा। लेकिन तेरी यादें मेरे साथ हमेशा रहेंगी..और मैं तेरी यादें अपने साथ ले जाऊंगा।" "दद्दू! ऐसा मत कहो न!" 20 साल का नौकरी वाला लड़का बिल्कुल 5 साल के बच्चें की तरह अपने दादा के कंधे पर सिर टिकाता हुआ लगभग रोते हुए बोला। "मैं मां को 1 हफ्ते के लिए साथ ले जा रहा हूँ! मैं चाहता हूं आप भी चलें मेरे साथ शहर..." "लेकिन अभी तो तूँ कह रहा था नही ले जा सकता..??" "मैं हमेशा की बात कर रहा था दद्दू!" अपने पोते की यह बात सुनकर वृद्ध हँस पड़े। ......*


 रात बिल्कुल काली हो चली थी। आखिर रात भी अमावस्या की ही थी। पतली सी गली में तीन लोग कहीं से मुसाफिरी करके लौट रहे थे। एक के साथ मे दो अटेचियाँ (पेटी) थीं। बे तीनो एक घर के सामने रुके और घर के दरवाजे पर दस्तक दी। कुछ  देर बाद दरवाजा खुला..सामने एक बहुत ही खूबसूरत 16 - 17 साल की लड़की लाल रंग की साड़ी में खड़ी हुई थी लग रहा था उसने अभी अभी नहाया है..उसके बाल बिल्कुल गीले थे लेकिन उसके होठो पर लाल रंग की लाली और आंखों में गहरा काजल सजा हुआ था। गले मे लंबा सा मंगलसूत्र था और माथे पर कुमकुम लगी हुई थी। उस लड़की ने दरवाजा खोलते ही अपने सिर पर घूँघट ले लिया था और तीन लोगों में से दो लोगो के चरणों मे वह झुक गई थी। वह लड़की और कोई नहीं बल्कि भगवान की प्रेमिका साध्वी थी..जो अब उसकी पत्नी बन चुकी थी। "मगर तुमने बेटा यह ठीक नहीं किया..." चिटाइ पर बैठी हुई भगवान की मां ने साध्वी से कहा। "अम्मा! जो हुआ उसमे साध्वी की या मेरी कोई गलती नहीं थी। यह तो सब इत्तेफाक से हुआ।" भगवान ने अपनी मां को समझाते हुए कहा। "तुम्हारे पिता जी बहुत दुखी रहतें हैं बेटा!" भगवान के दादा ने साध्वी से कहा। "दादा जी मैं भी उनसे मिलना चाहती हूं। मगर..अब अगर ऐसा हुआ तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। न! तो मैं भगवान का साथ दे पाऊँगी और न ही अपने परिवार का।" साध्वी भगवान के दादा और मां के सामने खाने की थालियां रख कर बोली। "अरे! बेटा मैं तेरे साथ ही खाऊँगी।" भगवान की मां ने साध्वी को खाना परोसने से रोकते हुए कहाँ। ......* 


 "जाने चले जाते हैं कहाँ..दुनिया से जाने वाले.." सभी के बीच बैठा हुआ भगवान रेडियो में यह गाना सुनते हुए अपने दद्दू को याद कर रहा था जो दो दिन पहले ही उसको हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे। "ये रेडियो अब बंद करदे बेटा! इन गानों को सुन कर दुख होता है।" भगवान के पिता जगन्नाथ बोले। "नहीं बापू..यह मेरे दद्दू का पहला दोस्त है..मैं इसे हमेशा अपने पास रखूंगा।"भगवान रेडियो को उठाकर उसे देखते हुए कहता है। "और तूँ शादी करायेगा या नहीं..?? देख कल तूँ फिर शहर जा रहा है..नौकरी वाला आदमी है न दुख में ज्यादा रुक सकता है न सुख में। इसलिए जो बात है सो अभी बता...मैंने तेरे लिए कुछ लड़कियां देखीं हैं..अब तो साध्वी भी नहीं रही इस दुनिया में। अब तो उसे भूल जा..और शादी कर ले बेटा बहुत बड़ी जिंदगी है तेरी..ऐसे नहीं गुजरेगी।" जगन्नाथदास अपने बेटे के कांधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं। "बापू मेरे पास सबकुछ है! मैं अपनी जिंदगी जी रहा हूँ! आप मेरी चिंता मत कीजिये। मैं जाता हूँ अब सोने...आप सब भी सो जाइये.. रात बहुत हो गई है।" भगवानसिंह इतना कह कर रेडियो को अपने सीने से लगाये हुए घर के अंदर चला जाता है। ....* 


 "तुम जानती हो साध्वी इस रेडियो में क्या है?" "हां! तुम्हारे दद्दू की आत्मा..!" "अरे! नहीं पागल इसमें सबकी आत्मा है..तुम्हारी मेरी, मेरी दादी की मेरी मां की.." "वो कैसे..." "मेरी मां इसी को सुनते हुए घर मे अकेले अपने कामों में लगी रहती है..मेरी दादी को इससे प्रेम इसलिए था क्योंकि यह मेरे दादा जी का सबसे पहला दोस्त था और मेरे दादा जी का सबसे पहला दोस्त इसलिये था क्योकि जब सब उन्हें छोड़ कर चले जाते थे तब यही उनके साथ रहा करता था। और यह इसमें मेरी जान इसलिए बसी है क्योंकि इसने ही तुम्हे मुझसे मिलाया है, और तुम्हारी आत्मा इसमें इसलिए है क्योंकि तुम्हें नई-नई जानकारियां लेने का बहुत शौक है.." "उफ्फ..तुम कितने बुद्धू हो।" भगवान के सिर को अपनी गोद में रखे हुए साध्वी हँस कर कहती है। ......* 


 1980.. भगवानसिंह ठाकुर और साध्वी देवी को यह अदालत धोखाधड़ी करने के जुर्म में 20-20 साल की सजा सुनाती है। "मैं इस रेडियो को अपने साथ रखना चाहता हूं।" भगवान सिंह इंस्पेक्टर से बोला। "क्यों इसमें ऐसा क्या है??" "इसमें मेरे अपनों की यादें है जो मुझे 20 सालों तक सुकून की नींदे देंगी।" "तब तुम्हे यह नहीं मिलेगा..जिसने एक भले इंसान के साथ इतना बड़ा धोखा किया उसे सुकून की नींद कभी नहीं मिलेगी।" इंस्पेक्टर ने भगवान के हाथों से वह रेडियो छीनते हुए कहा। उस जैल में साध्वी और भगवान कभी कभी एक दूसरे को देख लेते थे मगर उन्हें मिलने की इजाजत नहीं दी जाती थी। समय बीतता चला गया और अब भगवान अपनी सजा पूरी करके इंस्पेक्टर के सामने खड़ा था अब वह किसी नवजवान से कोई अधेड़ बन चुका था..उसकी आंखें बिल्कुल लाल और चेहरा बहुत डरावना लगने लगा था। लगता था जैसे उसने 20 साल से आंखे बंद नहीं की थीं। "मेरी साध्वी कहाँ है??" "तुम्हारी साध्वी अस्पताल में है..जाओ जा कर मिल लो।" इंस्पेक्टर ने भगवान का रेडियो उसके हाथों में थमाते हुए कहा। ......* 


 सन 2000.. "साध्वी..."अपनी बूढ़ी आंखों से साध्वी को क़ई सालों बाद देखकर आसुंओ से भीगते हुए भगवान ने कहा। "रेडियो तो चला लो पहले! बहुत दिनों से कोई जानकारी नहीं सुनी..इस रेडियो पर.." साध्वी अपने पलंग पर उठकर बैठते हुए बोली। "तुम्हे क्या हुआ है??" "मुझे कुछ नहीं हुआ! तुम एक बात बताओ भगवान..तुमको इस सजा से कितना फर्क पड़ा??" "रत्तीभर नहीं!" "क्यों??" "क्योंकि....इस सजा से बड़ी सजा वो होती जब तुम मुझे कभी नहीं मिलतीं! तुम मेरे पास रहीं भले ही कुछ दिन तक सही और हां! सबसे बड़ी वजह यह है कि हम बेकसूर हैं..सजा जरूर मिली लेकिन हम गुनहगार नहीं है।" भगवान साध्वी की आंखों में देखते हुए कहता गया। "मैं बहुत खुश हूं...की तुम्हारा ये रेडियो अभी तक सलामत है।" "मैं भी..." "अब आगे क्या करना है..?? तुम्हे! अब तो नौकरी भी नहीं है और तुम्हारे पिता ने भी तुम्हे त्याग दिया था।" "कुछ नहीं बाकी का वक़्त तुम्हारे साथ..और इस रेडियो के साथ गुजार देना है..!" भगवान की बात सुनकर साध्वी बहुत जोरो से हँसने लगी। "क्या हुआ तुम्हे..." भगवान ने साध्वी को इतना हँसते हुए देख कर पूछा। "सुनो! तुम इस रेडियो को कभी मत छोड़ना..तुम्हे मेरी कसम है।" साध्वी अपने पास बैठे भगवान के हाथ पर हाथ रखकर बोली। .....* 


 2010... "अरे! काका ये क्या कर रहे हो??" " अपनी आपबीती लिख रहा हूँ बच्चे!" "फिर इसका क्या करोगे??" "किसी को सुनाऊंगा..तो वह खुश होगा। उसे मजा आयेगा!" "अरे! ऐसा है...तो मुझे भी सुनाओ!" "मैं लिख दूंगा फिर खुद ही पढ़ लेना..." "ठीक है। लेकिन चलो अभी चल कर खाना खा लो। अम्मा बुला रही हैं.." "नहीं मैं खुद ही बना कर खाता हूं बेटा!" "ठीक है...मैं अम्मा से कह दूंगा। लेकिन आप क्या हमेशा यह रेडियो ही सुनते रहतें हैं??" "और.. क्या!" "क्यों??" "क्योंकि... इसमें क़ई  जिंदगियां  हैं।" "माने..??" "माने.. रेडियो में मेरे अपनो की यादें है।" "मुझे न आया कुछ समझ! मैं चला रोटी खाने।" रोहित इतना कह कर निकल गया। "आप सुन रहे है..."दास्तान हमारी..." यह आत्मकथा हैं श्री भगवानसिंह ठाकुर जी की... जीवन का पहला गाना जो गुनगुनाया था.."नये पुराने साल में एक रात बाकी है.." यह रात हमेशा ही बाकी रही...कभी मेरे जीवन से नहीं निकली। सबकुछ खोते हुए भी मेरे साथ बना रहा यह रेडियो..जिसने मेरी हिम्मत बनाये रखी। साध्वी कि शादी होना ही मेरे लिए मौत जैसा था। और उसके बाद जब पता लगा कि उसका जीवनसाथी उसे कष्टों के अलावा कुछ नहीं देता तो लगा जैसे किसी ने जख्म पर ही जख्म दे दिया है। मैंने बहुत बार चाहा कि उसे उस नर्क से निकाल लाऊं मगर ऐसा नहीं हो पाया। लेकिन किस्मत ने इस बार मेरा मान रख लिया था..। मेरे ऑफिस के चपरासी को रेडियो सुनने की बड़ी आदत थी..वह दिनभर ही इसे चलाये रखता था..और मेरे सामने तो वह बिना किसी झिझक के...ही। मुझे भी तो पसंद थे गीत, गजलें, लोकगीत..कहानियां..और जमाने भर की खबरें। और सबसे बड़ी बात थी मेरे दादा जी की याद..मेरे दादा जी हमेशा रेडियो सुना करते थे..मेरी दादी की याद में। समाचार प्रारंभ हुआ..."एक आदमी और एक 16-17 साल की लड़की की लाश बीना बांध में मिली।" मुझे अचानक ही ख्याल आया कि बीना बांध के पास ही तो साध्वी रहती है..जहां उसका शराबी पति भी रहता है। मुझे बहुत घबराहट हुई..लड़की की उम्र साध्वी जितनी ही बताई गई थी। मैंने तुरंत रिक्शा पडका और बांध की ओर बड़ा..रात का वक़्त था। सुनसान रास्तों पर रिक्सा दौड़ रहा था। बांध के पास पहुँचते ही देखा वहां पुलिस और पत्रकारों की भीड़ लगी है। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। मैंने पास जाकर देखा तो दोनों ही लाशें बिल्कुल गल चुकीं थी। शायद हादसा दो तीन दिन पुराना हो चुका था। लड़के की पहचान की गई तो पता लगा वह साध्वी का पति श्याम था। मेरी आँखें डबडबा गयीं। जब वह श्याम था तो वह लड़की साध्वी ही हो सकती थी।पुलिस मुझे आगे नहीं बढ़ने दे रही थी। मैं सुबह तक वहीं बांध के पास बैठा रहा। सारी कार्रवाई चलती रही। किसी का ध्यान मुझपर नहीं था क्योंकि मैं किसी को दिखाई न दूँ ऐसी जगह पर बैठा हुआ था। सुबह हिम्मत करके मैं अपने घर की ओर बड़ा मैंने देखा कि मेरे घर का ताला टूटा हुआ था...मुझे सचमुच इस बात की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि किसी ने मेरे घर में चोरी की होगी। मैंने जैसे ही दरवाजे को अंदर की ओर ढकेला...सामने देखा तो साध्वी बैठी हुई थी। मैं उसे देखकर  दंग रह गया, उसकी आँखे रो-रो कर लाल हो चुकी थीं। मैंने खुदको संभालते हुए दरवाजे को ठीक से लगाया और साध्वी के पास गया। उसके आंसुओ को पोछते हुए मैंने उसे उसके पति के बारे में बताया कि अब वह इस दुनिया में नहीं है। उसने मेरी बात सुनकर..बताया कि वह यह सब पहले से जानती है। उसके पति और उसकी प्रेमिका रज्जो दोनों का कत्ल किया गया है। जो कि रज्जो के पति ने किया है। मैं तो उसके अत्याचार सहती रहती थी लेकिन रज्जो के पति को यह कतई मंजूर नहीं था और उसने एक दिन मौका पाते ही श्याम और रज्जो को मौत के घाट उतार दिया था। श्याम की एक नहीं अनेकों प्रेमिकाए थी..एक नम्बर का अय्याश आदमी था श्याम। मैंने उसके साथ जिंदगी का एक लम्हा चैन से नहीं गुजारा। आज वह मर गया है..उसके माता पिता गांव से अभी तक नहीं आये हैं। मुझे पता है वह लोग मुझे श्याम के बाद श्याम से भी बुरी जिंदगी देंगे। मैं पूरी जिंदगी का दुख तुमसे कुछ घड़ी की मुलाकात के बाद अपने कंधों पर लेना चाहती हूं। और इसलिए मैं तुम्हारे पास आ गई हूं भगवान! साध्वी के इन शब्दों ने मुझे तोड़ कर रख दिया था। मैंने निश्चय कर लिया था कि अब चाहे कुछ हो जाएं मैं साध्वी को पुनः उस नर्क की जिंदगी में नहीं जाने दूंगा। मैंने मेरे पास रखे चाकू की धार अपने अंगूठे पर फेरी और रिस्ता हुआ रक्त साध्वी की मांग में सजा दिया। यकायक रेडियो के नेटवर्क मिलते लगे..रेडियो में समाचारों का प्रोग्राम चल रहा था..."बीना बांध पर मिली दो लाशें! श्याम लौधी और उनकी पत्नी साध्वी लौधी की हैं, बताया जा रहा है कि यह मुआमला हत्या का है। जल्द ही इस मामले के अबूझ पहलूओ को आप तक लाएंगे। तब तक के लिए शुभरात्रि। इसी अंतिम समाचार के साथ समाचार सन्धा समाप्त। इस खबर ने मेरी प्रतिज्ञा बिल्कुल सरल कर दी थी और साध्वी अब मेरी पत्नी थी। कुछ छः महीनों के बाद रेडियो ने हमारे होश उड़ा दिए थे। समाचार था कि "छः महीने पहले मरी औरत साध्वी लौधी जिंदा नजर आयी।" इस समाचार को सुनते ही मैंने अपना तबादला बीना से दमोह कराने का आवेदन दे दिया था। आवेदन देने के दिन ही मैंने अपने घर जाकर अपनी मां और दादा जी को साध्वी के बारे में बताने का फैसला कर लिया था। चूंकि गांव बीना में ही था जो ट्रेन की कोई झंझट नहीं थी। बस का सफर करते हुए मैं अपने गांव पहुँचा जहां पाया कि मेरे दादा जी को साध्वी के विषय मे पहले से ही पता था। उन्होंने मुझसे जब कहा की उनका पहला दोस्त रेडियो है..तब मैं समझ गया था कि साध्वी के मरने और मरकर भी जिंदा दिखने वाली खबरों से ही दादा जी समझ गए थे कि साध्वी मेरे पास है। मैंने अपने प्यारे दद्दू और प्यारी मां को साध्वी से मिलवा दिया था। मगर कुछ सालों बाद ही..साध्वी के सास-ससुर ने साध्वी के जिंदा होने का पता लगा लिया था। और मैं और साध्वी, साध्वी को मरी हुई बताने के जुर्म में 20 सालों के लिए जैल चले गए थे। मौत का इल्जाम इसलिए नहीं लगा था क्योकि अपराधी रज्जो का पति पहले ही पकड़ा गया था। मैंने बीस साल तक साध्वी ठीक से नहीं देखा था..कभी कभार किस्मत से दिख जाती थी। पता नहीं ईश्वर ने किस गुनाह की सजा दी जिंदगी भर..मैं जिसे घूँट-घूँट पीता रहा। 20 साल बाद जब मैं अपनी सजा पूरी करके निकला तब मैंने पाया कि मेरी साध्वी किसी अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी मुझे देख कर खुश हो रही है और हँस रही है। 20 सालों में उसके शरीर ने उससे जिंदगी जीने का हक छीन लिया था..बीमारियों ने उसे घेर रखा था। उसके अंतिम शब्द मुझे जीते रहने पर विवश कर गए है..मैं चाह कर भी जिंदगी का दामन नहीं छोड़ सकता। उसने जाते हुए कहा था.."मैं तुम्हारी जिंदगी में दोबारा नहीं आती तो शायद तुम्हे अपनी जिंदगी के खूबसूरत 20 साल किसी नर्क की तरह न बिताने पड़ते लेकिन मैं खुश हूं कि तुम्हारे दादा जी का रेडियो अब भी तसलामत है..तुम मेरी याद समझ कर इसे सदा अपने पास रखना। और जिंदगी को गीतों की तरफ गुनगुनाना..खबरों की तरह सुनना और मनोविनोद से इसे फूलों की महकाते रहना। अब एक गांव में एक छोटे से घर में रहता हूं..जिसका किराया नहीं लगता। लगता क्या..जो इस घर की मालकिन है वह मुझे अपने पिता के समान मानती है और मुझसे इक रुपया नहीं मांगती। और इसलिए मैं उसके बेटे रोहित को रहासहा ज्ञान देता रहता हूँ उसकी किताबें तो मुझे समझ नहीं आतीं मगर जो मुझे आता है मैं उसे भलीभांति सिखाया करता हूँ। उसके घर तीन गायें हैं और एक नन्ही सी गाय भी..जिन्हें मैं पूरे गांव में घुमाता फिरता हूँ..अपने रेडियो और रेडियो में बसी मेरे अपनों की यादें लिए। कुछ दिनों की जिंदगी और फिर मैं भी तुम्हारे पास आस आ जाऊंगा साध्वी ठीक उसी तरह जिस तरह मेरे दद्दू मेरी दादी मां के पास चले गए थे।" रेडियो पर चल रहे प्रोग्राम में अपनी आपबीती सुनते हुए भगवान सिंह की आँखे भीग गयीं थी। वे सरसो के खेत में बैठे हुए एक मुस्कान के साथ अपनी आंखों से आंसू पोछ रहे थे तभी रोहित आया और रेडियो पर चल रहे गाने में विषय में भगवानसिंह से पूछने लगा। भगवानसिंह गाने के मर्म को समझाते रहे और रेडियो गाना गुनगुनाता रहा.."सारंगा तेरी याद में नैन हुए बैचैन..मधुर तुम्हारे मिलन बिना दिन कटते नहीं रैन.... सारंगा तेरी याद में।" 


समाप्त! 


 लेखिका - सुरभि गोली (मौलिक रचना)

2 comments:

  1. वाह! वाह! वाह! बहुत ही जबरदस्त कहानी है। प्रेम का निश्छल स्वरूप और भगवान की दृढता... अत्यंत भावुक कर देने वाली कहानी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद🙏😊

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